रजनीकांत आम लोगों के लिए उम्मीद का प्रतीक| यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि रजनीकांत ऐसे इंसान हें जिन्होंने फर्श से अर्श तक आने की कहावत को सत्य साबित करके बताया हो|

दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने बड़ी बड़ी सफलताएं अर्जित की पर जिस तरह रजनीकांत ने अभावों और संघर्षों में इतिहास रचा है वैसा पूरी दुनिया में कम ही लोग कर पाएं होंगे|

एक कारपेंटर से कुली बनने, कुली से बी.टी.एस. कंडक्टर और फिर एक कंडक्टर से विश्व के सबसे ज्यादा प्रसिद्ध सुपरस्टार बनने तक का सफ़र कितना परिश्रम भरा होगा ये हम सोच सकते हैं|

रजनीकांत का जीवन ही नहीं बल्कि फिल्मी सफ़र भी कई उतार चढ़ावों से भरा रहा है|

जिस मुकाम पर आज रजनीकांत काबिज़ हैं उसके लिए जितना परिश्रम और त्याग चाहिए होता है शायद रजनीकांत ने उससे ज्यादा ही किया है|

• संघर्षपूर्ण बचपन

रजनीकांत का जन्म 12 दिसम्बर 1950 को कर्नाटक के बैंगलोर में एक बेहद मध्यमवर्गीय मराठी परिवार में हुआ था| वे अपने चार भाई बहनों में सबसे छोटे थे|

उनका जीवन शुरुआत से ही मुश्किलों भरा रहा, मात्र पांच वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपनी माँ को खो दिया था| पिता पुलिस में एक हवलदार थे और घर की माली स्तिथि ठीक नहीं थी|

रजनीकांत ने युवावस्था में कुली के तौर पर अपने काम की शुरुआत की फिर वे ब.टी.एस में बस कंडक्टर (bus conductor) की नौकरी करने लगे|

• रजनीकांत का अंदाज़

एक कंडक्टर के तौर पर भी उनका अंदाज़ किसी स्टार से कम नहीं था| वो अपनी अलग तरह से टिकट काटने और सीटी मारने की शैली को लेकर यात्रियों और दुसरे बस कंडक्टरों के बीच विख्यात थे|

कई मंचों पर नाटक करने के कारण फिल्मों और एक्टिंग के लिए शौक तो हमेशा से ही था और वही शौक धीरे धीरे जुनून में तब्दील हो गया|

लिहाज़ा उन्होंने अपना काम छोड़ कर चेन्नई के अद्यार फिल्म इंस्टिट्यूट में दाखिला ले लिया| वहां इंस्टिट्यूट में एक नाटक के दौरान उस समय के मशहूर फिल्म निर्देशक के. बालाचंदर की नज़र रजनीकांत पर पड़ी और वो रजनीकांत से इतना प्रभावित हुए कि वहीँ उन्हें अपनी फिल्म में एक चरित्र निभाने का प्रस्ताव दे डाला|

फिल्म का नाम था अपूर्व रागांगल| रजनीकांत की ये पहली फिल्म थी पर किरदार बेहद छोटा होने के कारण उन्हें वो पहचान नहीं मिल पाई, जिसके वे योग्य थे|

लेकिन उनकी एक्टिंग की तारीफ़ हर उस इंसान ने की जिसकी नज़र उन पर पड़ी|

• विलेन से हीरो बने

रजनीकांत का फिल्मी सफ़र भी किसी फिल्म से कम नहीं| उन्होंने परदे पर पहले नकारात्मक चरित्र और विलेन के किरदार से शुरुआत की, फिर साइड रोल किये और आखिरकार एक हीरो के तौर पर अपनी पहचान बनाई| हालांकि रजनीकान्त, निर्देशक के. बालाचंदर को अपना गुरु मानते हैं पर उन्हें पहचान मिली निर्देशक एस.पी मुथुरामन की फिल्म चिलकम्मा चेप्पिंडी से|

इसके बाद एस.पी. की ही अगली फिल्म ओरु केल्विकुर्री में वे पहली बार हीरो के तौर पर अवतरित हुए| इसके बाद रजनीकांत ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और दर्जनों हिट फिल्मों की लाइन लगा दी| बाशा, मुथू, अन्नामलाई, अरुणाचलम, थालाप्ति उनकी कुछ बेहेतरीन फिल्मों में से एक हैं}|

• उम्र कोई मायने नहीं रखती

रजनीकांत ने यह साबित कर दिया की उम्र केवल एक संख्या है और अगर व्यक्ति में कुछ करने की ठान ले तो उम्र कोई मायने नहीं रखती| 65 वर्ष के उम्र के पड़ाव पर वे आज भी वे शिवाजी- द बॉस, रोबोट, कबाली जैसी हिट फिल्में देने का माद्दा रखते हैं|

65 वर्षीय रजनीकांत के लोग इतने दीवाने है कि कबाली फिल्म ने रिलीज़ होने से पहले ही 200 करोड़ रूपये कमा लिए |

एक समय ऐसा भी था जब एक बेहतरीन अभिनेता होने के बावजूद उन्हें कई वर्षों तक नज़रंदाज़ किया जाता रहा पर उन्होंने अपनी हिम्मत नहीं हारी|

ये बात रजनीकांत के आत्मविश्वास को और विपरीत परिस्तिथियों में भी हार न मानने वाले जज्बे का परिचय देती है|

• जमीन से जुड़े हुए

रजनीकांत आज इतने बड़े सुपर सितारे होने के बावजूद ज़मीन से जुड़े हुए हैं| वे फिल्मों के बाहर असल जिंदगी में एक सामान्य व्यक्ति की तरह ही दिखते है| वे दूसरे सफल लोगों से विपरीत असल जिंदगी में धोती-कुर्ता पहनते है|

शायद इसीलिए उनके प्रशंसक उन्हें प्यार ही नहीं करते बल्कि उनको पूजते हैं| रजनीकांत के बारे में ये बात जगजाहिर है कि उनके पास कोई भी व्यक्ति मदद मांगने आता है वे उसे खाली हाथ नहीं भेजते| रजनीकांत कितने प्रिय सितारे हैं, इस बात का पता इसी से लगाया जा सकता है कि दक्षिण में उनके नाम से उनके प्रशंशकों ने एक मंदिर बनाया है| इस तरह का प्यार और सत्कार शायद ही दुनिया के किसी सितारे को मिला हो|

चुटुकलों की दुनिया में रजनीकांत को ऐसे व्यक्ति के रूप में जाना जाता है जिसके लिए नामुनकिन कुछ भी नहीं और रजनीकांत लगातार इस बात को सच साबित करते रहते है| आज वे 65 वर्ष की उम्र में रोबोट-2 फिल्म पर काम कर रहे है, उनका यही अंदाज लोगों के दिलों पर राज करता है| 

From :  sugandh kumar


             
क्या आप यह विश्वास कर सकते हैं कि ऐसी उम्र जब हम और आप खुद को पूरी जिंदगी के लिए तैयार करते है या जब हम सब कड़ाके की ठंड में रजाई में दुबके रहते हैं और जब बरसात के दिनों में नम हवा अलसाकर हमारे दिमाग पर नशे की तरह छा रही होती हैं,

जीवन के ऐसे नाजुक पड़ाव पर किसी युवा ने आँखों में स्वयं कुछ बड़ा करने के सपने लिए रोज 16 घंटे काम कर 360 करोड़ से भी ज्यादा की कंपनी की नींव रख दी हो? ऐसा कर दिखाया है उड़ीसा के रीतेश अग्रवाल ने; जिन्होंने 20 वर्ष की कम उम्र में Oyo Rooms नाम की कंपनी की शुरूआत कर बड़े-बड़े अनुभवी उद्यमियों और निवेशकों को भी आश्चर्यचकित कर दिया। ओयो रूम्स का मुख्य उद्देश्य ट्रैवलर्स को सस्ते दामों पर बेहतरीन मूलभूत सुविधाओं के साथ देश के बड़े शहरों के होटलों में कमरा उपलब्ध कराना हैं।

व्यक्तिगत तौर पर, रीतेश सामान्य बुद्धी वाले युवा हैं।

दिखने में पतले, लंबे और बिखरे बालों वाले बिल्कुल किसी कॉलेज के आम विद्यार्थी की तरह। लेकिन कभी-कभी सामान्य से दिखने वाले लोग भी ऐसे काम कर जाते है जिसकी आपको उम्मीद नहीं होती।

रीतेश भी एक ऐसे ही युवा उद्यमी है। जिन्होंने मात्र 21 साल कि छोटी सी उम्र में अपने अनुभव, सही अवसर को पहचानने की क्षमता और मेहनत के बल पर अपने विचारों को वास्तविकता का रूप दे दिया।

• युवा–उद्यमी की बिज़नेस यात्रा

रीतेश अग्रवाल ने बिजनेस के बारे में सोचने और समझने का काम कम उम्र में ही शुरू कर दिया था| इसमें सबसे बड़ी भूमिका उनके पारिवारीक पृष्ठभूमि की थी। उनका जन्म 16 नवम्बर 1993 को उड़ीसा राज्य के जिले कटक बीसाम के एक व्यवसायिक परिवार में हुआ है।

बारहवीं तक कि पढ़ाई उन्होंने जिले के ही – Scared Heart School में की। इसके बाद उनकी इच्छा IIT में दाखिले की हुई।

जिसकी तैयारी के लिए वे राजस्थान के कोटा आ गए। कोटा में उनके बस दो ही काम थे- एक पढ़ना और दूसरा, जब भी अवकाश मिले खूब ट्रैवल करना। यही से उनकी रूची ट्रैवलिंग में बढ़ने लगी। कोटा में ही उन्होंने एक किताब लिखी – Indian Engineering Collages: A complete Encyclopedia of Top 100 Engineering Collages और जैसा कि पुस्तक के नाम से ही लग रहा है, यह पुस्तक देश के 100 सबसे प्रतिष्ठीत इंजनीयरिंग कॉलेजों के बारे में थी।

इस किताब को देश की सबसे प्रसिद्ध ई-कमर्स साईट् Flipkart पर बहुत पसंद किया गया। 16 वर्ष की उम्र में उनका चुनाव मुंबई स्थित Tata Institute of Fundamental Research (TIRF) में आयोजित, Asian Science Camp के लिए किया गया।

यह कैम्प एक वार्षिक संवाद मंच है जहां ऐशियाई मूल के छात्र शामिल किसी क्षेत्र विशेष की समस्याओं पर विचार-विमर्श कर विज्ञान और तकनीक की मदद से उसका हल ढूढ़ा करते हैं।

यहां भी वे छुट्टी के दिनों में खूब ट्रैवल किया करते और ठहरने के लिए सस्तें दामों पर उपलब्ध होटल्स (Budget Hotels) का प्रयोग करते।

पहले से ही रीतेश की रूची बिज़नेस में बहुत थी और इस क्षेत्र में वे कुछ करना चाहते थे। लेकिन बिज़नेस किस चीज का किया जाए, इस बात को लेकर वे स्पष्ट नहीं थे।

कई बार वे कोटा से ट्रेन पकड़ दिल्ली आ जाया करते और मुंबई की ही तरह सस्तें होटल्स में रूकते ताकि दिल्ली में होने वाले युवा-उद्यमियों के आयोजनों और सम्मेलनों में शामिल होकर नए युवा उद्यमियों और स्टार्ट-अप फाउंडर्स से मिल सके।

कई बार इन इवेन्टस में शामिल होने का रजिस्ट्रेशन शुल्क इतना ज्यादा होता कि उनके लिए उसे दे पाना मुश्किल हो जाता। इसलिए कभी-कभी वो इन आयोजनों में चोरी-चुपके जा बैठते! यही वो वक्त था, जब उन्होंने ट्रैवलिंग के दौरान ठहरने के लिए प्रयोग किए गए सस्तें होटल्स के बुरे अनुभवों को अपने बिज़नेस का रूप देने की सोची।

• ORAVEL STAYS से की शुरूआत

वर्ष 2012 में उन्होंने अपने पहले स्टार्ट-अप – Oravel Stays की शुरूआत की।

इस कंपनी का उद्देश्य ट्रैवलर्स को छोटी या मध्य अवधि के लिए कम दामों पर कमरों को उपलब्ध करवाना था।

जिसे कोई भी आसानी से ऑनलाइन आरक्षित कर सकता था। कंपनी के शुरू होने के कुछ ही महीनों के अंदर उन्हें नए स्टार्टपस में निवेश करने वाली कंपनी VentureNursery से 30 लाख का फंड भी प्राप्त हो गया। अब रितेश के पास अपनी कंपनी को आगे बढ़ाने के लिए प्रर्याप्त पैसे थे।

उसी समय-अंतराल में उन्होंने अपने इस बिजनेस आईडिया को Theil Fellowship, जो कि पेपल कंपनी के सह-संस्थापक – पीटर थेल के “थेल फाउनडेशन” द्वारा आयोजित एक वैश्विक प्रतियोगिता है के समक्ष रखा। सौभाग्यवश वे इस प्रतियोगिता में दसवां स्थान प्राप्त करने में सफल रहे और उन्हें फेलोशिप के रूप में लगभग 66 लाख की धनराशि प्राप्त हुई।

बहुत ही कम समय में उनके नये स्टार्टप को मिली इन सफलताओं से वे काफी उत्साहित हुए और वे अपने स्टार्ट-अप पर और बारीकी व सावधानी से काम करने लगे।

लेकिन पता नहीं क्यों उनका ये बिजनेस मॉडल आपेक्षित लाभ देने में असफल रहा और “ओरावेल स्टे” धीरे-धीरे घाटे में चला गया। वे परिस्थिति को जितना सुधारने का प्रयास करते, स्थिती और खराब होती जाती और अंत में उन्हें इस कंपनी को अस्थायी रूप से बंद करना पड़ा।

• जब ORAVEL STAYS बन गया OYO ROOMS

रीतेश अपने स्टार्ट-अप के असफल होने से निराश नहीं हुए और उन्होंने दुबारा स्वयं द्वारा अपनाई गई योजना पर विचार करने कि सोची ताकि इसकी कमियों को दूर किया जा सके।

इससे उन्हें यह अनुभव हुआ कि भारत में सस्ते होटल्स में कमरे मिलना या न मिलना कोई समस्या नहीं हैं, दरअसल कमी है होटल्स का कम पैसे में बेहतरीन मूलभूल सुविधाओं को प्रदान न कर पाना।

विचार करते हुए उन्हें अपनी यात्राओं के दौरान बज़ट होटल्स में ठहरने के उन अनुभवों को भी याद किया जब उन्हें कभी-कभी बहुत ज्यादा पैसे देने के बाद भी गंदे और बदबूदार कमरें मिलते और कभी-कभी कम पैसों में ही आरामदायक और सुविधापूर्ण कमरे मिल जाते।

इन्हीं बातों ने उन्हें फिर प्रेरित किया कि वे पुनः Oravel Stays में नये बदलाव करे एवं ट्रैवलर्स की सुविधाओं को ध्यान में रख उसे नये रूप में प्रस्तुत करें और फिर क्या था वर्ष 2013 में फिर ओरावेल लॉन्च हुआ लेकिन इस बार बिल्कुल नये नाम और मकसद के साथ। अब ओरावेल का नया नाम Oyo Rooms (ओयो रूम्स) था। जिसका मतलब होता है “आपके अपने कमरे”।

ओयो रूम्स का उद्देश्य अब सिर्फ ट्रैवलर्स को किसी होटल में कमरा मुहैया कराना भर नहीं रह गया। अब वह होटल के कमरों की और वहां मिलने वाली मूलभूत सुविधाओं की गुणवता का भी ख्याल रखने लगे और इसके लिए कंपनी ने कुछ मानकों को भी निर्धारित किया। अब जो भी होटल ओयो रूम्स के साथ जुड़ अपनी सेवाएं देना चाहता है। उसे सबसे पहले कंपनी से संपर्क करना होता है।

इसके पश्चात कंपनी के कर्मचारी उस होटल में जा वहां के कमरों और अन्य सुविधाओं का निरीक्षण करते है। अगर वह होटल ओयो के सभी मानकों पर खरा उतरता है तभी वह ओयो के साथ जुड़ सकता है, अन्यथा नहीं।

• सफलता के कदम

इस बार रीतेश पहले की गलतियों को दुहराना नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने एक बिजनेस फर्म – SeventyMM के सीईओ भावना अग्रवाल से मिल बिजनेस की बारिकियों को बेहतरीन ढ़ंग से जानने का प्रयास किया। इन सलाहों ने आगे चलकर उन्हें कंपनी के लिए अच्छे निर्णय लेने में काफी मदद की।

प्रारम्भ में ओयो रूम्स को लगातार ग्राहक मिलते रहे इसलिए उन्होंने लगभग दर्जन भर होटलों के साथ समझौता कर लिया।

इस बार रीतेश की मेहनत रंग लाई और सबकुछ वैसा ही हुआ जैसा वे चाहते थे। किफायती दामों पर बेहतरीन सुविधाओं के साथ ट्रैवलर्स को यह सेवा बहुत पसंद आने लगी। धीरे-धीरे ग्राहकों कि मांगो को पूरा करने के लिए कंपनी में कर्मचारियों की संख्या 2 से 15, 15 से 25 कर दी गई। वर्तमान में ओयो में कर्मचारियों की संख्या 1500 से भी ज्यादा हैं।

कंपनी के स्थापित होने के एक वर्ष बाद, 2014 में ही दो बड़ी कंपनियों Lightspeed Venture Partners (LSVP) एवं DSG Consumer Partners ने Oyo Rooms में 4 करोड़ रूपये का निवेश किया।

वर्तमान वर्ष 2016 में, जापान की बहुराष्ट्रीय कंपनी Softbank ने भी 7 अरब रूपयें का निवेश किया है। जो कि एक नई कंपनी के लिए बहुत बड़ी उपलब्धी है।

वह बात जिसने रीतेश अग्रवाल को कंपनी को और आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया है, वह है- हर महीने ग्राहकों द्वारा 1 करोड़ रूपये से भी ज्यादा की जाने वाली बुकिंग।

आज मात्र 2 वर्षों में Oyo Rooms 15000 से भी ज्यादा होटलो की श्रृंखला (1000000 कमरों) के साथ देश की सबसे बड़ी आरामदेह एवं सस्ते दामों पर लागों को कमरा उपलब्ध कराने वाली कंपनी बन चुकी है। रीतेश अग्रवाल की यह कंपनी भारत के शीर्ष स्टार्ट-अप कंपनियों में से एक हैं।

इसी वर्ष कंपनी ने मलेशिया में भी अपनी सेवाएं देना प्रारम्भ कर दिया है और आने वाले समय में अन्य देशों में भी अपनी पहुँच बनाने जा रही है।

इसी माह (2 July, 2016), प्रतिष्ठीत अंतराष्ट्रीय मैगज़ीन GQ (Gentlemen’s Quarterly) ने रितेश अग्रवाल को 50 Most Influential Young Indians: Innovators की सूची में शामिल किया है। इस सूची में उन युवा इनोवेटर्स को शामिल किया जाता है जो अपनी नई सोच व विचारों से लोगों की जिंदगी को आसान बनाते है।

From : Sugandh Kumar 
एक किसान परिवार में जन्म लेनेवाले शख्स का देश के सबसे पुराने और बड़े व्यापारिक घराने का चेयरमैन बनना एक अजूबा नहीं, तो कम से कम चकित करने वाली घटना अवश्य है। वस्तुतः ऐसा हुआ है और यह चमत्कार किया है तमिलनाडु के नटराजन चंद्रशेखरन ने।

अब तक देश की सबसे बड़ी सूचना तकनीक (Information Technology) की कंपनी टीसीएस (Tata Consultancy Services) की कमान संभाल रहे, कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (Chief Executive Officer) नटराजन चंद्रशेखरन को टाटा सन्स के बोर्ड ने अपना मुखिया चुनकर एक इतिहास रच दिया है। इस घटना के इतिहास बनने के एक नहीं बल्कि दो पक्ष हैं।

पहला पक्ष कि टाटा समूह एक पारसी समुदाय का समूह है और आज तक इसके जो भी चेयरमैन हुए हैं, वह इसी समुदाय या फिर ग्रुप के संस्थापक जमशेदजी नसरवानजी टाटा के परिवार से ताल्लुक रखते रहे हैं। नटराजन चंद्रशेखरन को समूह का मुखिया बनाकर टाटा सन्स ने अब तक चली आ रही परिपाटी को तोड़ दिया है।

दूसरा पक्ष कि टाटा समूह ने अपने एक कर्मचारी को उसके काबिलियत पर भरोसा कर समूह की कमान सौंपी है, जबकि उद्दयोग जगत में ऐसा क्रांतिकारी कदम बहुत कम ही देखने को मिलता है। बहरहाल, नटराजन चंद्रशेखरन का टाटा सन्स का चेयरमैन बनना भारतीय उद्दयोग जगत के लिए एक विस्मयकारी परन्तु सकारात्मक संकेत माना जा रहा है।

• नटराजन चंद्रशेखरन का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

टाटा सन्स के नवनिर्वाचित चेयरमैन नटराजन चंद्रशेखरन का जन्म वर्ष 1963 में तमिलनाडु राज्य में नमक्कल के नजदीक स्थित मोहनुर में एक किसान परिवार में हुआ था।

प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात चंद्रशेखरन ने कोयम्बटूर स्थित कोयम्बटूर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में नामांकन कराया और यहां से एप्लाइड साइंस में स्नातक की डिग्री हासिल किया।

तत्पश्चात वे त्रिची (वर्तमान में तिरुचिराप्पली) स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से कंप्यूटर एप्लीकेशन में वर्ष 1986 में मास्टर डिग्री धारक बने।

मास्टर डिग्री प्राप्त करने के पश्चात चंद्रशेखरन ने वर्ष 1987 में टीसीएस (Tata Consultancy Services) में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के पद पर नौकरी के साथ अपने कैरिएर की शुरुआत की थी।

• नटराजन चंद्रशेखरन का टाटा सन्स के चेयरमैन बनने तक का सफ़र

नटराजन चंद्रशेखरन का नाम उद्दयोग की दुनिया में काबिलियत, नेतृत्व क्षमता और बेहतर परिणाम देने वाले शख्स के तौर पर जाना जाता है।

टाटा समूह की कंपनी TCS के साथ चंद्रशेखरन ने 30 साल का एक लंबा सफ़र तय किया है।

इन 30 वर्षों के दौरान वह कंपनी के एक साधारण कर्मचारी से प्रोन्नत होते हुए, TCS के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO) और प्रबंध निदेशक (MD) के पद तक पहुंचे।

अपनी काबिलियत और नेतृत्व क्षमता की बदौलत वह वर्ष 2002 में TCS के ग्लोबल सेल्स हेड बने और फिर वर्ष 2007 में उन्हें कंपनी का एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर बनाया गया। आगे जाकर वह पहले कंपनी के चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर (COO) बने और फिर 6 अक्टूबर 2009 को नटराजन चंद्रशेखरन को TCS का मुखिया यानि CEO बनाया गया। इस पद पर रहते हुए चंद्रशेखरन ने खुद को एक काबिल बिजनेस लीडर साबित किया।

कंपनी का कारोबार बढ़ाने के उद्देश्य से उन्होंने पारंपरिक लीक से हटते हुए प्रबंधन में कई नए प्रयोग किए। एक प्रयोग के तहत उन्होंने TCS को 23 बिजनेस यूनिट में विभाजित कर दिया था, जिसके परिणामस्वरूप कंपनी की कार्यप्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन आया और TCS देश की आईटी (Information Technology) कंपनियों की कतार में पहले पायदान पर पहुंच गया।

इससे पूर्व देश की एक और दिग्गज आईटी कंपनी इनफ़ोसिस को यह दर्जा हासिल था। स्पष्ट है कि चंद्रशेखरन को न केवल तकनीक क्षेत्र की विशेषज्ञता हासिल है बल्कि वह प्रबंधन के क्षेत्र में भी अव्वल हैं।

सही मायने में कहा जाय तो नटराजन चंद्रशेखरन एक ‘तकनीकी उद्द्यमी’ (Techno Entrepreneur) हैं। उनकी इसी विशेषज्ञता का परिणाम है कि जिस TCS की आमदनी 2010 में 30,000 करोड़ रुपये थी, आज वह बढ़कर 1 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गई है। उनके नेतृत्व में कंपनी का मुनाफा भी तीन गुना बढ़ा है।

आज TCS का मुनाफा 7,093 करोड़ रुपये से बढ़कर 24,375 करोड़ रुपये हो गया है। गौरतलब है कि टाटा समूह की कुल आमदनी में TCS का योगदान 70 फीसदी है। चंद्रशेखरन के ही योग्य नेतृत्व का परिणाम है कि वर्तमान में TCS को देश के सबसे मूल्यवान कंपनी का दर्जा प्राप्त है जिसका बाज़ार पूंजीकरण (Market Capitalisation) लगभग 4।2 लाख करोड़ रुपये है।

नटराजन चंद्रशेखरन को अंतर्राष्ट्रीय ग्राहकों के साथ काम करने और उनके साथ तालमेल बनाने में महारत हासिल है। अपनी योग्यता के बदौलत ही वह बिज़नस की दुनिया के बड़े नाम जैसे, जीई, जेपी मॉर्गन, वालमार्ट, होम देपौत, इलेक्ट्रॉनिक आर्ट्स आदि को TCS के साथ जोड़ने और उन्हें बेहतर सेवा देने में सफल रहे। वर्ष 2012 में इन्हीं के नेतृत्व में सूचना प्रोद्योगिकी इंडस्ट्री के लिए ‘विजन 2020’ तैयार हुआ था।

नटराजन चंद्रशेखरन देश और दुनिया के व्यावसायिक समुदायों द्वारा दिए जानेवाले कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजे जा चुके हैं।

भारत के राष्ट्रीय बैंक भारतीय रिज़र्व बैंक ने चंद्रशेखरन को वर्ष 2016 में अपने बोर्ड में निदेशक के पद पर नामित किया था। वर्ष 2012-13 के लिए वह भारतीय सूचना प्रोद्योगिकी कम्पनीयों की शीर्ष संस्था नैसकॉम (NASSCOM) के चेयरमैन पद को भी सुशोभित कर चुके हैं।

बहरहाल वह इस संस्था के प्रशासनिक कार्यकारी परिषद् (Governing Executive Council) के सदस्य भी हैं। इसी प्रकार चंद्रशेखरन वर्ष 2015-16 के दौरान स्विट्ज़रलैंड के दावोस में स्थित विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum) में दुनिया भर के सूचना प्रोद्योगिकी (IT) कम्पनीयों की संस्था का भी नेतृत्व कर चुके हैं।

वह भारत-अमेरिका CEO मंच के भी सदस्य रहे हैं। इसके अलावा वह भारत सरकार द्वारा ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, जापान और मलेशिया के साथ व्यापार बढ़ाने के लिए गठित विशेष व्यापारिक कार्यबल (Special Business Taskforce) के भी सदस्य रहे हैं।

वर्ष 2014 में हैदराबाद स्थित जवाहरलाल नेहरु टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी (JNTU) ने चंद्रशेखरन को मानद डॉक्टरेट (Honorary Doctorate) की उपाधि से सम्मानित किया था। इसके अलावा वे नीदरलैंड के न्येंरोदे बिज़नस यूनिवर्सिटी से भी मानद डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित हो चुके हैं।

• नटराजन चंद्रशेखरन का निजी जीवन

शायद बहुत कम लोगों को पता हो कि सूचना प्रोद्योगिकी और प्रबंधन के क्षेत्र में बुलंदियों को छूने वाले नटराजन चंद्रशेखरन एक बेहतरीन फोटोग्राफर और मेराथन धावक भी हैं। इन्होने कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होने वाले मेराथन दौड़ में हिस्सा लिया है।

इनमें मुंबई, एम्स्टर्डम, बोस्टन, शिकागो, बर्लिन, न्यूयॉर्क और टोक्यो में आयोजित होने वाले मेराथन प्रमुख हैं। मेराथन दौड़ में इनका सबसे बेहतर रिकॉर्ड 5 घंटे 52 सेकंड का है, जो इन्होने वर्ष 2014 में न्यूयॉर्क मेराथन में बनाया था। फिलहाल 53 वर्षीय नटराजन चंद्रशेखरन अपनी पत्नी ललिता और पुत्र प्रणव के साथ मुंबई में रहते हैं। 21 फरवरी 2017 को चंद्रशेखरन टाटा सन्स के चेयरमैन का पदभार ग्रहण करेंगे।

अंततः यह कहना गलत नहीं होगा कि आज नटराजन चंद्रशेखरन ने व्यवसाय की दुनिया में जिस मुकाम को हासिल किया है, ऐसा मौका विरले को ही मिलता है।

From : sktalk2020
ई-कॉमर्स के क्षेत्र में खास पहचान हासिल कर चुकी स्नैपडील वेबसाइट से आप कई मर्तबा खरीदारी कर चुके होंगे, लेकिन क्या आप स्नैपडील के संस्थापक के बारे में जानते हैं? मन में कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो हर मुश्किल आसान हो जाती है।

ई-कॉमर्स के क्षेत्र में खास पहचान हासिल कर चुके स्नैपडील के संस्थापक और सीईओ कुणाल बहल पर यह बात बिल्कुल फिट बैठती है।

कभी एक निजी कंपनी में 6550 रुपए मासिक तनख्वाह की नौकरी करने वाले कुणाल आज देशभर में दो हजार से ज्यादा कर्मचारियों की रोजी-रोटी का जरिया हैं।

दून स्कूल के स्थापना दिवस समारोह में बतौर मुख्य अतिथि पहुंचे कुणाल ने छात्रों के साथ अपने जीवन के ऐसे ही उतार-चढ़ावों के अनुभव साझा किए।

शनिवार को दून स्कूल के रोज बाउल ऑडिटोरियम में आयोजित समारोह में कुणाल ने बताया कि उनके बड़े भाई आईआईटी के छात्र थे। माता-पिता हमेशा चाहते थे कि वह भी आईआईटी में जाएं। ढाई साल तैयारी भी की, लेकिन मन नहीं माना।

कुणाल ने आईआईटी जाने का लक्ष्य छोड़ दिया। कॅरियर की शुरुआत एक मैन्यूफैक्चरिंग कंपनी में 6550 रुपए तनख्वाह से की।

• वीजा खत्म होने पर माइक्रोसॉफ्ट से जुड़े

एक साल बाद अभिभावकों के दबाव में वह पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए।

वहां भी कुछ समय एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी की, लेकिन वीजा खत्म होने पर माइक्रोसॉफ्ट से जुड़ गए।

कंपनी की कोशिश के बावजूद वीजा नहीं बढ़ा तो वह भारत लौट आए।

कुछ समय बिजनेस के बारे में सोचते रहे। वर्ष 2009 में डिस्काउंट कूपन बुक कंपनी ‘मनी सेवर’ शुरू की।

इसके तहत लोगों को कूपन बेचकर रेस्टोरेंट में खाने, खरीदारी आदि में कुछ छूट दी जाती थी। लेकिन डेढ़ साल में 1.5 करोड़ कूपन बेचने का टारगेट सिर्फ 53 पर अटक गया।

कुणाल के मुताबिक इसके बाद लगा कि फेल हो गए। इस बीच 25 जून 2010 को अचानक कूपन की सेलिंग ऑनलाइन करने का आइडिया आया और आठ दिन के भीतर वेबसाइट लांच कर दी गई।

बताया कि शुरुआत में नतीजे अच्छे नहीं रहे, लेकिन धीरे-धीरे रेस्पांस बढ़ने लगा। ई-कॉमर्स की बारीकियां सीखने के लिए वर्ष 2011 में वह चीन भी गए। आज तीन साल बाद स्नैपडील देश की अग्रणी ई-कॉमर्स कंपनियों में शुमार है।

From : sktalk2020
ब्रायन ऐक्टन (Brian Acton) ये नाम तो आप सभी ने सुना ही होगा। अगर नहीं भी सुना तो कोई बात नहीं आज तो सुन ही लिया, और मैं उम्मीद करती हूँ, कि आज इस आर्टिकल को पढ़कर शायद ही इनका नाम दोबारा हमें आपको या किसी और को याद दिलाना पड़े।

आज सभी के पास Android फोन हैं, और WhatsApp अप जो कि एक ऐसी अप्लीकेशन है, जो आज के समय में शायद ही किसी शख्स के फ़ोन में ना हो।

कुछ लोगो को Android फ़ोन की जरुरत नहीं होती, लेकिन वह फिर भी केवल WhatsApp चलाने के लिए Android फ़ोन खरीदते हैं। हम दिनभर WhatsApp पर लोगो से बात करते हैं।

दोस्तों के साथ अपने फोटो, गाने शेयर करते हैं, पर हम WhatsApp का इतिहास नहीं जानते।

ब्रायन ऐक्टन (Brian Acton) जो कि आज सभी के Android फोन में यूज़ होने वाली WhatsApp अप अप्लीकेशन के co-founder हैं, आज से लगभग 6 साल पहले 2009 में फेसबुक पे जॉब के लिए गए थे।

उनका सपना था कि वो फेसबुक में जॉब करे, परन्तु फेसबुक ने उन्हें जॉब पर नहीं रखा, और रिजेक्ट कर दिए।

ब्रायन ऐक्टन (Brian Acton) इससे बहुत दुखी हुए, परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी और जॉब के लिए ट्विटर पर अप्लाई किया, परन्तु यहाँ भी उन्हें निराशा ही मिली, और उन्हें ट्विटर ने भी रिजेक्ट कर दिया। आज के समय में अगर किसी को एक ही बार किसी कम्पनी से रिजेक्ट कर दिया जाता है, तो या तो वह कुछ गलत कदम उठा लेता है, या फिर अपनी खुद की योग्यता और काबिलियत पर शक करने लगता है।

आज लोग अपने को एक जगह से रिजेक्ट होता देख, खुद को बहुत निराश और हताश कर लेते हैं। ब्रायन ऐक्टन (Brian Acton) ने ऐसा कुछ नहीं किया।

वो उठे और फिर से एक नयी आशा के साथ उन्होंने एक नयी शुरुआत की। उन्होंने खुद और अपने दोस्त के साथ मिलकर दिन रात मेहनत की, और अपने बुलंद हौसले और इरादो के दम पर Whatsapp को बना डाला। वो Whatsapp जिससे आज पूरी दुनिया जुडी हुई हैं।

अब 5 साल बाद उसी फेसबुक ने जिसने 6 साल पहले ब्रायन ऐक्टन (Brian Acton) को अपने यहाँ जॉब पर भी नहीं रखा था, उसी फेसबुक ने उनकी बनी अप्लीकेशन WhatsApp (व्हात्सप्प) को 19 बिलियन डॉलर में ख़रीदा, जो भारतीय रुपयों के हिसाब से लगभग एक लाख करोड़ रूपये से भी अधिक की धनराशि है।

ब्रायन ऐक्टन (Brian Acton) जिस कंपनी में नौकरी मांगने गए थे, आज वो उसी कंपनी के शेयर होल्डर बन गये। दोस्तों इसे कहते हैं आत्मविश्वास।

जिस कंपनी में वो एक छोटी सी नौकरी माँगने गए थे, उसी कंपनी ने उनकी बनी अप्लीकेशन WhatsApp (व्हात्सप्प)। को खरीदने के लिए 19 बिलियन डॉलर दिए।

जो आज तक की सबसे बड़ी डील मानी गयी है। जिस कंपनी में जॉब करने का उनका सपना था, वो उसी कंपनी में शेयर होल्डर बन गये। दोस्तों आपकी सफलता आपकी सोच पर निर्भर करती हैं।

आप अपनी एक असफलता से दुखी होकर अपनी ज़िन्दगी को खत्म कर लेते हैं, या अपनी उसी असफलता से मिले दुःख को अपनी ताकत बनाकर फिर से नई उम्मीद के साथ पुनः अपनी सफलता के लिए प्रयास करने लग जाते हैं।

आप अपनी एक असफलता से थककर बैठ जाते हैं, या अपनी उस असफलता से अपने को पहले से भी अधिक मजबूत बनाते हैं। दोस्तों अपने अंदर छुपी क्षमता को पहचानिये और एक नयी ऊर्जा के के साथ उठ खड़े होइए आप जरूर सफल होंगे।

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कहा जाता है कि विपरीत परिस्थिति आने पर कुछ लोग टूट जाते हैं और उनके अंदर निराशा घर कर जाती है। परन्तु इसके विपरीत कुछ लोग विपरीत परिस्थिति आने पर भी टूटते नहीं हैं और परिस्थिति से लड़ते हुए सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित करते हैं।

फिर ऐसे व्यक्ति अपने अनुभव और चिंतन से दुनिया को भी सफलता और ख़ुशी की राह दिखाते हैं। ऐसे ही व्यक्तियों में से एक हैं शिव खेड़ा। संघर्षों से जूझते हुए शिव खेड़ा ने अपना वह मुकाम बनाया है जहाँ से वह औरों के जीवन की निराशा को आशा में परिवर्तित करने का भागीरथ प्रयास कर रहे हैं।

शिव खेड़ा दुनिया के उन प्रभावशाली वक्ताओं, लेखकों और चिंतकों में से एक हैं जिन्होंने लाखों लोगों की जिन्दगी को अपने विचारों से सकारात्मक दिशा में मोड़ने में मदद की है। उन्होंने कई प्रेरणादायी पुस्तकें लिखीं हैं। उनकी लिखी पुस्तकों को जो भी एक बार पढ़ लेता है उसका जीवन पूर्ण आत्मविश्वास से भर उठता है। सोशल साईट ट्विटर पर उनके चाहने वालों की भारी तादाद है।

लाखों लोग रोजाना इंटरनेट पर शिव खेड़ा के जीवन और उनके प्रेरक विचारों की जिज्ञासा लिए उनसे संबंधित सामग्री की खोज करते हैं। उनका जीवन के प्रति जो सकारात्मक सोच और दृष्टिकोण है, वह अद्भुत है।

• शिव खेड़ा का प्रारंभिक जीवन

55 वर्षीय शिव खेड़ा का जन्म 23 अगस्त 1961 को झारखण्ड राज्य के धनबाद में एक व्यवसायी परिवार में हुआ था।

उनके पिता कोयला खादान के व्यवसाय से जुड़े हुए थे और माँ एक गृहणी थीं। बाद के दिनों में जब कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया, तब इस परिवार को भारी मुसीबतों के दौर से गुजरना पड़ा था।

इसी दौरान शिव खेड़ा ने एक स्थानीय सरकारी स्कूल से अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी की। स्कूल के दिनों में वह एक औसत दर्जे के विद्यार्थी थे।

10वीं की परीक्षा में एक बार वह फेल भी हो गए थे। परन्तु इसके बाद उनके जीवन में एक बड़ा परिवर्तन आया और उन्होंने एक सकारात्मक सोच के अपने जीवन की चुनौती को स्वीकार किया, जिसका परिणाम उन्हें उच्चतर माध्यमिक परीक्षा में मिला। इस परीक्षा में वे प्रथम श्रेणी में उतीर्ण हुए।

स्कूल के बाद उन्होंने बिहार के एक कॉलेज से स्नातक की डिग्री हासिल की। शिव खेड़ा के चिंतन का पंचलाइन है – ‘जो विजेता हैं वह कुछ अलग नहीं करते हैं बल्कि उनका करने का तरीका अलग होता है।’ शिव खेड़ा को अपने जीवन के प्रारंभिक दौर में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा था।

उन्होंने कनाडा में कार धोने जैसे छोटे काम से अपने जीवनयापन की शुरुआत की थी। फिर वे एक बीमा (Insurance) एजेंट बने परन्तु इस काम में भी उन्हें वह सफलता नहीं मिली जैसा कि वह चाहते थे।

फिर भी सफलता के लिए संघर्ष का उनका सफ़र जारी रहा। कभी प्राइवेट फर्म में तो कभी दूकान पर सेल्समैन की नौकरी या फिर अमेरिका के जेल में स्वयंसेवक (Volunteer) के तौर पर सेवा, जीवन के प्रारंभिक दौर में यही शिव खेड़ा का बायोडाटा था

• शिव खेड़ा का पेशेवर जीवन

कुछ वर्षों तक कनाडा में रहने के बाद शिव खेड़ा अमेरिका आ गए। यहां उन्हें प्रसिद्ध प्रेरक वक्ता (Motivational Speaker) नार्मन विन्सेंट पेअले को सुनने का मौका मिला। उनकी बातों से शिव खेड़ा बहुत प्रभावित हुए।

विन्सेंट पेअले को सुनने के बाद शिव खेड़ा के जीवन में एक बड़ा परिवर्तन आया और वह स्वयं एक प्रेरक वक्ता के तौर पर उभरने लगे।

आगे जाकर वे एक पेशेवर मोटिवेशनल स्पीकर बन गए। जल्दी ही उन्हें इस पेशे में प्रसिद्धि मिलने लगी।

अपनी योग्यता की बदौलत शिव खेड़ा कई व्यावसायिक संस्थानों के सलाहकार भी बने। इसी दौरान उन्होंने अमेरिका में ‘क्वालिफाइड लर्निंग सिस्टम इंक’ नाम से एक कंपनी का गठन किया। वर्तमान में शिव खेड़ा इस कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO) हैं।

यह कंपनी व्यक्तियों और संस्थाओं को सकारात्मक प्रगति की दिशा में आगे बढ़ने और कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए सलाह (Consultancy) सेवा प्रदान करती है।

इस कंपनी की शाखाएं भारत सहित दुनिया के कई देशों में फैली हुई है। शिव खेड़ा ने प्रेरणा और सकारात्मक तथ्यों से भरे अपने चिंतन को लेखन के माध्यम से लाखों लोगों तक पहुंचाया है। उन्होंने 16 पुस्तकें लिखीं हैं जो दुनियाभर में कई भाषाओँ में प्रकाशित हुई हैं।

वर्ष 1998 में शिव खेड़ा की पहली पुस्तक प्रकाशित हुई थी जिसका नाम था ‘यू कैन वीन’ (You Can Win)। इस पुस्तक ने बिक्री का एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था। हिंदी में ‘जीत आपकी’ टाइटल के साथ शिव खेड़ा की यह पुस्तक विश्व की 16 विभिन्न भाषाओँ में प्रकाशित हुई थी।

अभी तक के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार ‘यू कैन वीन’ की 30 लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। इस पुस्तक के लिए शिव खेड़ा कई पुरस्कारों से सम्मानित भी हो चुके हैं। शिव खेड़ा की अन्य प्रकाशित पुस्तकों में ‘लिविंग विथ ऑनर’ ( हिंदी में ‘सम्मान से जियें’), ‘फ्रीडम इज नॉट फ्री’ (हिंदी में ‘आज़ादी से जियें’), ‘यू कैन सेल’ (हिंदी में ‘बेचना सीखो और सफल बनो’) का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

‘जीत आपकी’ पुस्तक सकारात्मक दृष्टिकोण और व्यक्तिगत विकास के द्वारा किसी व्यक्ति के सफलता हासिल करने पर आधारित है।

इसी तरह उन्होंने अपनी पुस्तक ‘आज़ादी से जियें’ में स्पष्ट किया है कि सफलता सकारात्मक और नकारात्मक मूल्यों (Positive and Negative Value) पर आधारित होती है।

इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि शिव खेड़ा अपने चिंतन से पाठकों के दिलो-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ने में सफल हुए हैं। शिव खेड़ा टेलीविज़न, रेडियो, सेमिनार आदि के माध्यम से भी लोगों से मुखातिब होते हैं और प्रेरणादायी व्यक्तव्य (Speech) देते हैं।

लोगों में सकारात्मक सोच पैदा करने और सफलता के सूत्र बताने के लिए खेड़ा की कंपनी दुनिया के 17 देशों में लगातार कार्यशाला (Workshops) का आयोजन कर रही है। इस कार्यशाला में हजारों लोग शामिल होते हैं और लाभ उठाते हैं।

• शिव खेड़ा का निजी जीवन

संघर्ष के दिनों में ही शिव खेड़ा की शादी हो गई थी। उस समय उनकी उम्र 23 साल थी। कनाडा और अमेरिका में संघर्ष के दिनों में पत्नी का सहयोग उन्हें हमेशा मिलता रहा।

वह दो बच्चों के पिता हैं। अपनी सफलता में वह अपने परिवार का बहुत बड़ा योगदान मानते हैं। यही वजह है कि वह अपने जन्मदिन को अपने परिवार को समर्पित करते हैं और पूरा दिन उनके साथ बिताते हैं।

• शिव खेड़ा का सामाजिक और राजनीतिक जीवन

शायद बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि शिव खेड़ा एक सामाजिक कार्यकर्ता (Social Activist) हैं और राजनीती (Politics) में भी उन्होंने अपना भाग्य आजमाया है। अपने इन्हीं उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उन्होंने ‘कंट्री फर्स्ट फाउंडेशन’ के नाम से एक सामाजिक संगठन बनाया है।

इस संगठन का मिशन है – ‘शिक्षा और न्याय के द्वारा आज़ादी’। इसके बाद राजनीती में कदम रखते हुए शिव खेड़ा वर्ष 2004 के आम चुनाव में दक्षिणी दिल्ली लोकसभा क्षेत्र से निर्दलिये उम्मीदवार के तौर पर खड़े हुए। इस चुनाव में वह पराजित हुए।

भारतीय लोकसभा चुनाव के बारे में यहाँ पढ़ें। फिर वर्ष 2008 में उन्होंने ‘भारतीय राष्ट्रवादी समानता पार्टी’ के नाम से एक राजनीतिक दल का गठन किया और 2009 के आम चुनाव में एक बार फिर भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर चुनाव मैदान में उतरे।

परन्तु एक बार फिर उन्हें राजनीति के मैदान विफलता का मुंह देखना पड़ा। आगे जाकर वर्ष 2014 के आम चुनाव में शिव खेड़ा ने भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का समर्थन करते हुए, उनके पक्ष में अभियान चलाया।

आज भी वह एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर विभिन्न मुद्दों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर कर मुकदमा लड़ रहे हैं। वस्तुतः शिव खेड़ा की स्वयं की जीवनी एक प्रेरणादायी कहानी है।

एक छोटे से शहर से बिना किसी संसाधन के अमेरिका पहुँचाना और फिर परदेश में मुसीबतों से संघर्ष करते हुए अपना एक अलग मुकाम बनाना, दुनिया में प्रसिद्धि पाना, उनकी पुस्तक ‘यू कैन वीन’ को चरितार्थ करने के लिए काफी है।

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डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर का मूल नाम भीमराव था। उनके पिताश्री रामजी वल्द मालोजी सकपाल महू में ही मेजर सूबेदार के पद पर एक सैनिक अधिकारी थे।

अपनी सेवा के अंतिम वर्ष उन्‍होंने और उनकी धर्मपत्नी भीमाबाई ने काली पलटन स्थित जन्मस्थली स्मारक की जगह पर विद्यमान एक बैरेक में गुजारे।

सन् 1891 में 14 अप्रैल के दिन जब रामजी सूबेदार अपनी ड्यूटी पर थे, 12 बजे यहीं भीमराव का जन्म हुआ। कबीर पंथी पिता और धर्मर्मपरायण माता की गोद में बालक का आरंभिक काल अनुशासित रहा।

• शिक्षा

बालक भीमराव का प्राथमिक शिक्षण दापोली और सतारा में हुआ। बंबई के एलफिन्स्टोन स्कूल से वह 1907 में मैट्रिक की परीक्षा पास की।

इस अवसर पर एक अभिनंदन समारोह आयोजित किया गया और उसमें भेंट स्वरुप उनके शिक्षक श्री कृष्णाजी अर्जुन केलुस्कर ने स्वलिखित पुस्तक 'बुद्ध चरित्र' उन्हें प्रदान की।

बड़ौदा नरेश सयाजी राव गायकवाड की फेलोशिप पाकर भीमराव ने 1912 में मुबई विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की। संस्कृत पढने पर मनाही होने से वह फारसी लेकर उत्तीर्ण हुये।

• अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय
बी.ए. के बाद एम.ए. के अध्ययन हेतु बड़ौदा नरेश सयाजी गायकवाड़ की पुनः फेलोशिप पाकर वह अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में दाखिल हुये।

सन 1915 में उन्होंने स्नातकोत्तर उपाधि की परीक्षा पास की। इस हेतु उन्होंने अपना शोध 'प्राचीन भारत का वाणिज्य' लिखा था। उसके बाद 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय अमेरिका से ही उन्होंने पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की, उनके पीएच.डी. शोध का विषय था 'ब्रिटिश भारत में प्रातीय वित्त का विकेन्द्रीकरण'।

• लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स एण्ड पोलिटिकल सांइस

फेलोशिप समाप्त होने पर उन्हें भारत लौटना था अतः वे ब्रिटेन होते हुये लौट रहे थे। उन्होंने वहां लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स एण्ड पोलिटिकल सांइस में एम.एससी. और डी. एस सी. और विधि संस्थान में बार-एट-लॉ की उपाधि हेतु स्वयं को पंजीकृत किया और भारत लौटे।

सब से पहले छात्रवृत्ति की शर्त के अनुसार बडौदा नरेश के दरबार में सैनिक अधिकारी तथा वित्तीय सलाहकार का दायित्व स्वीकार किया। पूरे शहर में उनको किराये पर रखने को कोई तैयार नही होने की गंभीर समस्या से वह कुछ समय के बाद ही मुंबई वापस आये।

• दलित प्रतिनिधित्व

वहां परेल में डबक चाल और श्रमिक कॉलोनी में रहकर अपनी अधूरी पढाई को पूरी करने हेतु पार्ट टाईम अध्यापकी और वकालत कर अपनी धर्मपत्नी रमाबाई के साथ जीवन निर्वाह किया।

सन 1919 में डॉ. अम्बेडकर ने राजनीतिक सुधार हेतु गठित साउथबरो आयोग के समक्ष राजनीति में दलित प्रतिनिधित्व के पक्ष में साक्ष्य दी।

• अशिक्षित और निर्धन लोगों को जागरुक बनाने के लिया काम

उन्‍होंने मूक और अशिक्षित और निर्धन लोगों को जागरुक बनाने के लिये मूकनायक और बहिष्कृत भारत साप्ताहिक पत्रिकायें संपादित कीं और अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने के लिये वह लंदन और जर्मनी जाकर वहां से एम. एस सी., डी. एस सी., और बैरिस्टर की उपाधियाँ प्राप्त की।

उनके एम. एस सी. का शोध विषय साम्राज्यीय वित्त के प्राप्तीय विकेन्द्रीकरण का विश्लेषणात्मक अध्ययन और उनके डी.एससी उपाधि का विषय रूपये की समस्या उसका उद्भव और उपाय और भारतीय चलन और बैकिंग का इतिहास था।

• डी. लिट्. की मानद उपाधियों से सम्मानित

बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर को कोलंबिया विश्वविद्यालय ने एल.एलडी और उस्मानिया विश्वविद्यालय ने डी. लिट्. की मानद उपाधियों से सम्मानित किया था।

इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर वैश्विक युवाओं के लिये प्रेरणा बन गये क्योंकि उनके नाम के साथ बीए, एमए, एमएससी, पीएचडी, बैरिस्टर, डीएससी, डी.लिट्. आदि कुल 26 उपाधियां जुडी है।

• योगदान
भारत रत्न डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने अपने जीवन के 65 वर्षों में देश को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, औद्योगिक, संवैधानिक इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों में अनगिनत कार्य करके राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया, उनमें से मुख्य निम्‍नलिखित हैं;

• सामाजिक एवं धार्मिक योगदान

मानवाधिकार जैसे दलितों एवं दलित आदिवासियों के मंदिर प्रवेश, पानी पीने, छुआछूत, जातिपाति, ऊॅच-नीच जैसी सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के लिए मनुस्मृति दहन (1927), महाड सत्याग्रह (वर्ष 1928), नासिक सत्याग्रह (वर्ष 1930), येवला की गर्जना (वर्ष 1935) जैसे आंदोलन चलाये।

बेजुबान, शोषित और अशिक्षित लोगों को जगाने के लिए वर्ष 1927 से 1956 के दौरान मूक नायक, बहिष्कृत भारत, समता, जनता और प्रबुद्ध भारत नामक पांच साप्ताहिक एवं पाक्षिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया।

कमजोर वर्गों के छात्रों को छात्रावासों, रात्रि स्कूलों, ग्रंथालयों तथा शैक्षणिक गतिविधियों के माध्यम से अपने दलित वर्ग शिक्षा समाज (स्था. 1924) के जरिये अध्ययन करने और साथ ही आय अर्जित करने के लिए उनको सक्षम बनाया। सन् 1945 में उन्होंने अपनी पीपुल्‍स एजुकेशन सोसायटी के जरिए मुम्बई में सिद्वार्थ महाविद्यालय तथा औरंगाबाद में मिलिन्द महाविद्यालय की स्थापना की।

बौद्धिक, वैज्ञानिक, प्रतिष्ठा, भारतीय संस्कृति वाले बौद्ध धर्म की 14 अक्टूबर 1956 को 5 लाख लोगों के साथ नागपुर में दीक्षा ली तथा भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्स्‍थापित कर अपने अंतिम ग्रंथ ''द बुद्धा एण्ड हिज धम्मा'' के द्वारा निरंतर वृद्धि का मार्ग प्रशस्त किया।

जात पांत तोडक मंडल (वर्ष 1937) लाहौर, के अधिवेशन के लिये तैयार अपने अभिभाषण को जातिभेद निर्मूलन नामक उनके ग्रंथ ने भारतीय समाज को धर्मग्रंथों में व्याप्त मिथ्या, अंधविश्वास एवं अंधश्रद्धा से मुक्ति दिलाने का कार्य किया। हिन्दू विधेयक संहिता के जरिए महिलाओं को तलाक, संपत्ति में उत्तराधिकार आदि का प्रावधान कर उसके कार्यान्वयन के लिए वह जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे।

• आर्थिक, वित्तीय और प्रशासनिक योगदान

भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखित शोध ग्रंथ रूपये की समस्या-उसका उदभव तथा उपाय और भारतीय चलन व बैकिंग का इतिहास, ग्रन्थों और हिल्टन यंग कमीशन के समक्ष उनकी साक्ष्य के आधार पर 1935 से हुई।

उनके दूसरे शोध ग्रंथ 'ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास' के आधार पर देश में वित्त आयोग की स्थापना हुई। कृषि में सहकारी खेती के द्वारा पैदावार बढाना, सतत विद्युत और जल आपूर्ति करने का उपाय बताया।

औद्योगिक विकास, जलसंचय, सिंचाई, श्रमिक और कृषक की उत्पादकता और आय बढाना, सामूहिक तथा सहकारिता से प्रगत खेती करना, जमीन के राज्य स्वामित्व तथा राष्ट्रीयकरण से सर्वप्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी गणराज्य की स्थापना करना।

सन 1945 में उन्होंने महानदी का प्रबंधन की बहुउददे्शीय उपयुक्तता को परख कर देश के लिये जलनीति तथा औद्योगिकरण की बहुउद्देशीय आर्थिक नीतियां जैसे नदी एवं नालों को जोड़ना, हीराकुण्ड बांध, दामोदर घाटी बांध, सोन नदी घाटी परियोजना, राष्ट्रीय जलमार्ग, केन्द्रीय जल एवं विद्युत प्राधिकरण बनाने के मार्ग प्रशस्त किये।

सन 1944 में प्रस्तावित केन्द्रिय जल मार्ग तथा सिंचाई आयोग के प्रस्ताव को 4 अप्रैल 1945 को वाइसराय द्वारा अनुमोदित किया गया तथा बड़े बांधोंवाली तकनीकों को भारत में लागू करने हेतु प्रस्तावित किया। उन्होंने भारत के विकास हेतु मजबूत तकनीकी संगठन का नेटवर्क ढांचा प्रस्तुत किया। उन्होंने जल प्रबंधन तथा विकास और नैसर्गिक संसाधनों को देश की सेवा में सार्थक रुप से प्रयुक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया।

• संविधान तथा राष्ट्र निर्माण

उन्‍होंने समता, समानता, बन्धुता एवं मानवता आधारित भारतीय संविधान को 02 वर्ष 11 महीने और 17 दिन के कठिन परिश्रम से तैयार कर 26 नवंबर 1949 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सौंप कर देश के समस्त नागरिकों को राष्ट्रीय एकता, अखंडता और व्यक्ति की गरिमा की जीवन पध्दति से भारतीय संस्कृति को अभिभूत किया।

वर्ष 1951 में महिला सशक्तिकरण का हिन्दू संहिता विधेयक पारित करवाने में प्रयास किया और पारित न होने पर स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दिया। वर्ष 1955 में अपना ग्रंथ भाषाई राज्यों पर विचार प्रकाशित कर आन्ध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र को छोटे-छोटे और प्रबंधन योग्य राज्यों में पुनर्गठित करने का प्रस्ताव दिया था, जो उसके 45 वर्षों बाद कुछ प्रदशों में साकार हुआ।

निर्वाचन आयोग, योजना आयोग, वित्त आयोग, महिला पुरुष के लिये समान नागरिक हिन्दू संहिता, राज्य पुनर्गठन, बडे आकार के राज्यों को छोटे आकार में संगठित करना, राज्य के नीति निर्देशक तत्व, मौलिक अधिकार, मानवाधिकार, काम्पट्रोलर व ऑडीटर जनरल, निर्वाचन आयुक्त तथा राजनीतिक ढांचे को मजबूत बनाने वाली सशक्त, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं विदेश नीति बनाई।

प्रजातंत्र को मजबूती प्रदान करने के लिए राज्य के तीनों अंगों न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं विधायिका को स्वतंत्र और पृथक बनाया तथा समान नागरिक अधिकार के अनुरूप एक व्यक्ति, एक मत और एक मूल्य के तत्व को प्रस्थापित किया।

विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों की सहभागिता संविधान द्वारा सुनिश्चित की तथा भविष्य में किसी भी प्रकार की विधायिकता जैसे ग्राम पंचायत, जिला पंचायत, पंचायत राज इत्यादि में सहभागिता का मार्ग प्रशस्त किया।

सहकारी और सामूहिक खेती के साथ-साथ उपलब्ध जमीन का राष्ट्रीयकरण कर भूमि पर राज्य का स्वामित्व स्थापित करने तथा सार्वजनिक प्राथमिक उद्यमों यथा बैकिंग, बीमा आदि उपक्रमों को राज्य नियंत्रण में रखने की पुरजोर सिफारिश की तथा कृषि की छोटी जोतों पर निर्भर बेरोजगार श्रमिकों को रोजगार के अधिक अवसर प्रदान करने के लिए उन्होंने औद्योगीकरण की सिफारिश की।

• शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा एवं श्रम कल्याण

वायसराय की कौंसिल में श्रम मंत्री की हैसियत से श्रम कल्याण के लिए श्रमिकों की 12 घण्टे से घटाकर 8 घण्टे कार्य-समय, समान कार्य समान वेतन, प्रसूति अवकाश, संवैतनिक अवकाश, कर्मचारी राज्य बीमा योजना, स्वास्थ्य सुरक्षा, कर्मचारी भविष्य निधि अधिनियम 1952 बनाना, मजदूरों एवं कमजोर वर्ग के हितों के लिए तथा सीधे सत्ता में भागीदारी के लिए स्वतंत्र मजदूर पार्टी का गठन कर 1937 के मुम्बई प्रेसिडेंसी चुनाव में 17 में से उन्‍होंने 15 सीटें जीतीं।

कर्मचारी राज्य बीमा के तहत स्वास्थ्य, अवकाश, अपंग-सहायता, कार्य करते समय आकस्मिक घटना से हुये नुकसान की भरपाई करने और अन्य अनेक सुरक्षात्मक सुविधाओं को श्रम कल्याण में शामिल किया। कर्मचारियों को दैनिक भत्ता, अनियमित कर्मचारियों को अवकाश की सुविधा, कर्मचारियों के वेतन श्रेणी की समीक्षा, भविष्य निधि, कोयला खदान तथा माईका खनन में कार्यरत कर्मियों को सुरक्षा संशोधन विधेयक सन 1944 में पारित करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सन 1946 में उन्होंने निवास, जल आपूर्ति, शिक्षा, मनोरंजन, सहकारी प्रबंधन आदि से श्रम कल्याण नीति की नींव डाली तथा भारतीय श्रम सम्मेलन की शुरूआत की जो अभी निरंतर जारी है, जिसमें प्रतिवर्ष मजदूरों के ज्वलंत मुद्दों पर प्रधानमंत्री की उपस्थिति में चर्चा होती है और उसके निराकरण के प्रयास किये जाते है।

श्रम कल्याण निधि के क्रियान्वयन हेतु सलाहकार समिति बनाकर उसे जनवरी 1944 में अंजाम दिया। भारतीय सांख्यिकी अधिनियम पारित कराया ताकि श्रम की दशा, दैनिक मजदूरी, आय के अन्य स्रोत, मुद्रस्‍फीति, ऋण, आवास, रोजगार, जमापूंजी तथा अन्य निधि व श्रम विवाद से संबंधित नियम सम्भव कर दिया।

नवंबर 8, 1943 को उन्होंने 1926 से लंबित भारतीय श्रमिक अधिनियम को सक्रिय बनाकर उसके तहत भारतीय श्रमिक संघ संशोधन विधेयक प्रस्तावित किया और श्रमिक संघ को सख्ती से लागू कर दिया। स्वास्थ्य बीमा योजना, भविष्य निधि अधिनियम, कारखाना संशोधन अधिनियम, श्रमिक विवाद अधिनियम, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम और विधिक हडताल के अधिनियमों को श्रमिकों के कल्याणार्थ निर्माण कराया।

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तमाम जीवन परोपकार और दूसरों की सेवा में अर्पित करने वाली मदर टेरेसा ऐसे महान लोगों में से एक हैं जो सिर्फ दूसरों के लिए जीती थीं।

संसार के तमाम दीन-दरिद्र, बीमार, असहाय और गरीबों के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाली मदर टेरेसा का असली नाम ‘अगनेस गोंझा बोयाजिजू’था।

• मदर टेरेसा का जन्म

अलबेनियन भाषा में गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है। मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को स्कॉप्जे (अब मसेदोनिया में) में एक अल्बेनीयाई परिवार में हुआ। उनके पिता निकोला बोयाजू एक साधारण व्यवसायी थे।

• मदर टेरेसा के पिता का निधन

जब वह मात्र आठ साल की थीं तभी उनके पिता परलोक सिधार गए, जिसके बाद उनके लालन-पालन की सारी जिम्मेदारी उनकी माता द्राना बोयाजू के ऊपर आ गयी। वह पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं।

• समाजसेवी मदर टेरेसा

18 साल की उम्र में उन्होंने ‘सिस्टर्स ऑफ़ लोरेटो’ में शामिल होने का फैसला लिया और फिर वह आयरलैंड चली गयीं जहाँ उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी क्योंकि ‘लोरेटो’की सिस्टर्स के लिए ये जरुरी था। आयरलैंड से 6 जनवरी, 1929 को वह कोलकाता में ‘लोरेटो कॉन्वेंट पंहुचीं। 1944 में वह सेंट मैरी स्कूल की प्रधानाचार्या बन गईं।

• एक कैथोलिक नन

मदर टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं। मदर टेरेसा ने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’के नाम से आश्रम खोले, जिनमें वे असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व ग़रीबों की स्वयं सेवा करती थीं।

1946 में गरीबों, असहायों, बीमारों और लाचारों के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। 1948 में स्वेच्छा से उन्होंने भारतीय नागरिकता ले ली थी।

• मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी की स्थापना

7 अक्टूबर 1950 को उन्हें वैटिकन से ‘मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी’की स्थापना की अनुमति मिल गयी। इस संस्था का उद्देश्य समाज से बेखर और बीमार गरीब लोगों की सहायता करना था। मदर टेरेसा को उनकी सेवाओं के लिए विविध पुरस्कारों एवं सम्मानों से सम्मनित किया गया था।

• पद्मश्री से सम्मनित

भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्मश्री से सम्मनित किया। इन्हें 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार और 1980 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया। मदर टेरेसा ने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धन-राशि गरीबों को फंड कर दी। 1985 में अमेरिका ने उन्हें मेडल आफ़ फ्रीडम से नवाजा।

• अंतिम समय में रहीं परेशान

अपने जीवन के अंतिम समय में मदर टेरेसा ने शारीरिक कष्ट के साथ-साथ मानसिक कष्ट भी झेले क्योंकि उनके ऊपर कई तरह के आरोप लगाए गए थे। उन पर ग़रीबों की सेवा करने के बदले उनका धर्म बदलवाकर ईसाई बनाने का आरोप लगा। भारत में भी पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में उनकी निंदा हुई। उन्हें ईसाई धर्म का प्रचारक माना जाता था।

• मदर टेरेसा का निधन

मदर टेरेसा की बढती उम्र के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य भी गिरता चला गया। 1983 में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के दौरान उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा। 1989 में उन्हें दूसरा दिल का दौरा पड़ा और उन्हें कृत्रिम पेसमेकर लगाया गया।

• उनका निधन

उनका निधन साल 1991 में मैक्सिको में उन्हें न्यूमोनिया और ह्रदय की परेशानी हो गयी। 13 मार्च 1997 को उन्होंने ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के मुखिया का पद छोड़ दिया और 5 सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई।

From : sktalk2020
मिल्खा सिंह का जन्म पाकिस्तान के लायलपुर में 8 अक्टूबर, 1935 को हुआ था।

उन्होंने अपने माता-पिता को भारत-पाक विभाजन के समय हुए दंगों में खो दिया था।

वह भारत उस ट्रेन से आए थे जो पाकिस्तान का बॉर्डर पार करके शरणार्थियों को भारत लाई थी। अत: परिवार के नाम पर उनकी सहायता के लिए उनके बड़े भाई-बहन थे।

मिल्खा सिंह का नाम सुर्ख़ियों में तब आया जब उन्होंने कटक में हुए राष्ट्रीय खेलों में 200 तथा 400 मीटर में रिकॉर्ड तोड़ दिए।

1958 में ही उन्होंने टोकियो में हुए एशियाई खेलों में 200 तथा 400 मीटर में एशियाई रिकॉर्ड तोड़ते हुए स्वर्ण पदक जीते।

इसी वर्ष अर्थात 1958 में कार्डिफ (ब्रिटेन) में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण पदक जीता।

उनकी इन्हीं सफलताओं के कारण 1958 में भारत सरकार द्वारा उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया।

मिल्खा सिंह का नाम ‘फ़्लाइंग सिख’ पड़ने का भी एक कारण था। वह तब लाहौर में भारत-पाक प्रतियोगीता में दौड़ रहे थे। वह एशिया के प्रतिष्ठित धावक पाकिस्तान के अब्दुल खालिक को 200 मीटर में पछाड़ते हुए तेज़ी से आगे निकल गए, तब लोगों ने कहा- ”मिल्खा सिंह दौड़ नहीं रहे थे, उड़ रहे थे।” बस उनका नाम ‘फ़्लाइंग सिख’ पड़ गया।

मिल्खा सिंह ने अनेक बार अपनी खेल योग्यता सिद्ध की। उन्होंने 1968 के रोम ओलंपिक में 400 मीटर दौड़ में ओलंपिक रिकॉर्ड तोड़ दिया। उन्होंने ओलंपिक के पिछले 59 सेकंड का रिकॉर्ड तोड़ते हुए दौड़ पूरी की।

उनकी इस उपलब्धि को पंजाब में परी-कथा की भांति याद किया जाता है और यह पंजाब की समृद्ध विरासत का हिस्सा बन चुकी है। इस वक्त अनेक ओलंपिक खिलाड़ियों ने रिकॉर्ड तोड़ा था। उनके साथ विश्व के श्रेष्ठतम एथलीट हिस्सा ले रहे थे।

1960 में रोम ओलंपिक में मिल्खा सिंह ने 400 मीटर दौड़ की प्रथम हीट में द्वितीय स्थान (47.6 सेकंड) पाया था। फिर सेमी फाइनल में 45.90 सेकंड का समय निकालकर अमेरिकी खिलाड़ी को हराकर द्वितीय स्थान पाया था।

फाइनल में वह सबसे आगे दौड़ रहे थे। उन्होंने देखा कि सभी खिलाड़ी काफी पीछे हैं अत: उन्होंने अपनी गति थोड़ी धीमी कर दी। परन्तु दूसरे खिलाड़ी गति बढ़ाते हुए उनसे आगे निकल गए। अब उन्होंने पूरा जोर लगाया, परन्तु उन खिलाड़ियों से आगे नहीं निकल सके।

अमेरिकी खिलाड़ी ओटिस डेविस और कॉफमैन ने 44.8 सेकंड का समय निकाल कर प्रथम व द्वितीय स्थान प्राप्त किया। दक्षिण अफ्रीका के मैल स्पेन्स ने 45.4 सेकंड में दौड़ पूरी कर तृतीय स्थान प्राप्त किया। मिल्खा सिंह ने 45.6 सेकंड का समय निकाल कर मात्र 0.1 सेकंड से कांस्य पदक पाने का मौका खो दिया।

मिल्खा सिंह को बाद में अहसास हुआ कि गति को शुरू में कम करना घातक सिद्ध हुआ। विश्व के महान एथलीटों के साथ प्रतिस्पर्धा में वह पदक पाने से चूक गए।

मिल्खा सिंह ने खेलों में उस समय सफलता प्राप्त की जब खिलाड़ियों के लिए कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं, न ही उनके लिए किसी ट्रेनिंग की व्यवस्था थी। आज इतने वर्षों बाद भी कोई एथलीट ओलंपिक में पदक पाने में कामयाब नहीं हो सका है।

रोम ओलंपिक में मिल्खा सिंह इतने लोकप्रिय हो गए थे कि जब वह स्टेडियम में घुसते थे, दर्शक उनका जोशपूर्वक स्वागत करते थे। यद्यपि वहाँ वह टॉप के खिलाड़ी नहीं थे, परन्तु सर्वश्रेष्ठ धावकों में उनका नाम अवश्य था। उनकी लोकप्रियता का दूसरा कारण उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी व लंबे बाल थे।

लोग उस वक्त सिख धर्म के बारे में अधिक नहीं जानते थे। अत: लोगों को लगता था कि कोई साधु इतनी अच्छी दौड़ लगा रहा है।

उस वक्त ‘पटखा’ का चलन भी नहीं था, अत: सिख सिर पर रूमाल बाँध लेते थे। मिल्खा सिंह की लोकप्रियता का एक अन्य कारण यह था कि रोम पहुंचने के पूर्व वह यूरोप के टूर में अनेक बड़े खिलाडियों को हरा चुके थे और उनके रोम पहुँचने के पूर्व उनकी लोकप्रियता की चर्चा वहाँ पहुंच चुकी थी।

मिल्खा सिंह के जीवन में दो घटनाए बहुत महत्व रखती हैं। प्रथम-भारत-पाक विभाजन की घटना जिसमें उनके माता-पिता का कत्ल हो गया तथा अन्य रिश्तेदारों को भी खोना पड़ा। दूसरी-रोम ओलंपिक की घटना, जिसमें वह पदक पाने से चूक गए।

इसी प्रथम घटना के कारण जब मिल्खा सिंह को पाकिस्तान में दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेने का आमंत्रण मिल्खा तो वह विशेष उत्साहित नहीं हुए।

लेकिन उन्हें एशिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी के साथ दौड़ने के लिए मनाया गया। उस वक्त पाकिस्तान का सर्वश्रेष्ठ धावक अब्दुल खादिक था जो अनेक एशियाई प्रतियोगिताओं में 200 मीटर की दौड़ जीत चुका था।

ज्यों ही 200 मीटर की दौड़ शुरू हुई यूं लगा कि मानो मिल्खा सिंह दौड़ नहीं, उड़ रहें हों।

उन्होंने अब्दुल खादिक को बहुत पीछे छोड़ दिया। लोग उनकी दौड़ को आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे। तभी यह घोषणा की गई कि मिल्खा सिंह दौड़ने के स्थान पर उड़ रहे थे और मिल्खा सिंह को ‘फ़्लाइंग सिख’ कहा जाने लगा।

उस दौड़ के वक्त पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अय्यूब भी मौजूद थे। इस दौड़ में जीत के पश्चात् मिल्खा सिंह को राष्ट्रपति से मिलने के लिए वि.आई.पी. गैलरी में ले जाया गया।

मिल्खा सिंह द्वारा जीती गई ट्राफियां, पदक, उनके जूते (जिन्हें पहन कर उन्होंने विश्व रिकार्ड तोड़ा था), ब्लेजर यूनीफार्म उन्होंने जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में बने राष्ट्रीय खेल संग्रहालय को दान में दे दिए थे। 1962 में एशियाई खेलों में मिल्खा सिंह ने स्वर्ण पदक जीता। खेलों से रिटायरमेंट के पश्चात् वह इस समय पंजाब में खेल, युवा तथा शिक्षा विभाग में अतिरिक्त खेल निदेशक के पद पर कार्यरत हैं।

उनका विवाह पूर्व अन्तरराष्ट्रीय खिलाड़ी निर्मल से हुआ था। मिल्खा सिंह के एक पुत्र तथा तीन पुत्रियां है। उनका पुत्र चिरंजीव मिल्खा सिंह (जीव मिल्खा सिंह भी कहा जाता है) भारत के टॉप गोल्फ खिलाड़ियों में से एक है तथा राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेकों पुरस्कार जीत चुका है।

उसने 1990 में बीजिंग के एशियाई खेलों में भी भाग लिया था। मिल्खा सिंह की तीव्र इच्छा है कि कोई भारतीय एथलीट ओलंपिक पदक जीते, जो पदक वह अपनी छोटी-सी गलती के कारण जीतने से चूक गए थे।

मिल्खा सिंह चाहते हैं कि वह अपने पद से रिटायर होने के पश्चात् एक एथलेटिक अकादमी चंडीगढ़ या आसपास खोलें ताकि वह देश के लिए श्रेष्ठ एथलीट तैयार कर सकें। मिल्खा सिंह अपनी लौह इच्छा शक्ति के दम पर ही उस स्थान पर पहुँच सके, जहाँ आज कोई भी खिलाड़ी बिना औपचारिक ट्रेनिंग के नहीं पहुँच सका।

• उपलब्धियां

- 1957 में मिल्खा सिंह ने 400 मीटर में 47.5 सेकंड का नया रिकॉर्ड बनाया।

- टोकियो जापान में हुए तीसरे एशियाड (1958) में मिल्खा सिंह ने 400 मीटर तथा 200 मीटर में दो नए रिकॉर्ड स्थापित किए।

- जकार्ता (इंडोनेशिया) में हुए चौथे एशियाड (1959) में उन्होंने 400 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक जीता।

- 1959 में भारत सरकार ने उनकी उपलब्धियों के लिए उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया।

- 1960 में रोम ओलंपिक में उन्होंने 400 मीटर दौड़ का रिकॉर्ड तोड़ा।

- 1962 के एशियाई खेलों में मिल्खा सिंह ने स्वर्ण पदक जीता।
थॉमस एल्वा एडिसन महान एक अमरीकी आविष्कारक एवं व्यवसायी थे।

संपूर्ण विश्व मे अपनी महानतम उपलब्धियो के लिए जाने वाले इस महान वैज्ञानिक (scientist) के नाम पर 1093 आविष्कारो के पेटेंट दर्ज हैं।

विद्युत-बल्ब का अविष्कार करने के कारण इन्हे विश्वभर मे प्रकाश का फरिश्ता कहा जाता हैं।

थॉमस एल्वा एडिसन का जन्म 11 फरवरी 1847 में अमेरिका के ओहियो शहर के मिलान गाँव में हुआ था।

इनके पिता का नाम सेमुएल एडिसन और माँ का नाम नैन्सी एलियट था।

एडिसन अपने माता-पिता की सात संतानों में से सबसे छोटे थे।

इनके पिता ने हर प्रकार के व्यवसाय करने का प्रयास किया लेकिन उन्हे किसी मे भी सफलता ना मिली।

जिस समय एडिसन की उम्र सात वर्ष की थी, तब उनका परिवार पोर्ट ह्यूरोंन, मिशिगेज चला गया, जहा पर उनके पिता एक बढाई के रूप में फोर्ट ग्रेरियेट में नियुक्त किये गये थे।

एडीसन बचपन मे बहुत कमजोर थे और उनका व्यक्तित्व बहुत जटिल था। लेकिन इनका मस्तिष्क सदा पश्नो से भरा रहता था।

वह किसी भी चीज़ को तबतक नही मानते थे जब तक उसका स्वंय परीक्षण न कर ले। इस प्रकार के दृष्टिकोण के कारण ही इन्हे स्कूल से निकाल दिया गया।

इनके अध्यापक ने कहा था की इस लड़के का दिमाग़ बिल्कुल खाली हैं। स्कूल से निकले जाने के बाद इन्हे इनकी माँ ने घर पर ही शिक्षा दी थी, जो की खुद अध्यापिका थी।

एडिसन ने अपनी ज्यादातर शिक्षा आर.जी. पार्कर स्कूल से और दी कूपर यूनियन स्कूल ऑफ़ साइंस एंड आर्ट से ग्रहण किया।

एडिसन को बचपन से ही सुनने में तकलीफ होती थी। ये सब तब से चल रहा था जब से बचपन में उन्हें एक तेज़ बुखार आया था और उस से उबरते समय उनके दाहिने कान में चोट आ गयी थी। तभी से उन्हें सुनने में थोड़ी-बहुत परेशानी होती थी।

उनके करियर के मध्य, उन्होंने अपनी बीमारी के बारे में बताया की जब वे ट्रेन में सफ़र कर रहे थे तभी एक केमिकल में आग लग गयी, जिस वजह से वे ट्रेन के बाहर फेके गये और उनके कान में चोट आ गयी। कुछ साल बाद ही, उन्होंने इस कहानी को तोड़ते हुए एक नहीं कहानी बनाई और कहने लगे की जब चलती ट्रेन में कंडक्टर उनकी मदद कर रहा था, तभी अचानक उनके कान में चोट लगी थी।

सन 1862 की बात हैं जब इन्होने अपनी जान पर खेलकर स्टेशन मास्टर के बच्चे को एक रेल दुर्घटना मे मरने से बचाया। एडीसन के इस कारनामे से स्टेशन मास्टर बहुत प्रसन्न हुआ।

उसके पास धन के रूप मे तो कुछ देने को था नही, लेकिन उसने एडीसन को टेलिग्राफ सिखाने का वचन दिया।

एडीसन ने इस व्यक्ति से टेलिग्राफ सीखी और सन 1868 मे उन्होने अपना टेलिग्राफ पर पहला पेटेंट कराया। उसी वर्ष उन्होने वोट रेकॉर्ड करने की मशीन का अविष्कार किया।

इसके अगले वर्ष वे न्यूयॉर्क चले गये। वहाँ पर भी उन्होने कुछ समय ग़रीबी मे गुज़रा, लेकिन कुछ दिन बाद उन्हे स्टॉक एक्सचेंज के टेलिग्राफ ऑफीस मे नौकरी मिल गयी।

उन्होने अपना टेलिग्राफ उपकरण एक्सचेंज के प्रेसीडेंट को इस आशा मे भेंट किया की उन्हे इसके लिए 2,000 डॉलर मिल जाएँगे, लेकिन एक्सचेंज का प्रेसीडेंट उनके इस टेलिग्राफ उपकरण से इतना प्रभावित हुआ की उसने एडीसन को इसके 40 हज़ार डॉलर दिए, यही से उनके सौभाग्य का आरंभ हुआ।

सन 1876 मे न्यूजर्सी के मैनलो पार्क मे इन्होने अपनी प्रयोगशाला स्थापित की। वहाँ इन्होने इतने अनुसंधान किए की इन्हे मैनलो पार्क का जादूगर कहा जाने लगा।

सन् 1877 मे एडीसन ने ग्रामोफ़ोन का अविष्कार किया। इसी प्रयोगशाला मे सन् 1879 मे एडीसन ने विद्युत बल्ब का अविष्कार किया।

जब ये विद्युत बल्ब पर कार्य कर रहे थे तभी इन्होने तापायनिक उत्सर्जन (Thermionic Emission) के सिद्धांत का अविष्कार किया और बाद मे इसी सिद्धांत पर एलेक्ट्रॉनिक बल्ब बनाए गए।

एडिसन ने विद्युत प्रकाश के अलावा सिनेमा, टेलीफोन, रिकॉर्ड और सीडी का सृजन किया और योगदान दिया था। उनके समस्त अविष्कार आज किसी न किसी रूप में उपयोग में है।

एडीसन के शोधो के आधार पर ही बाद मे रेमिँगटन टाइप रायटर विकसित किया गया। इन्होने एक विद्युत से चलने वाला पेन भी खोजा, जो बाद मे मिमोग्रफ के रूप मे विकसित हुआ। सन् 1889 मे उन्होने चलचित्र कैमरा भी विकसित किया।

एडिसन एक महान अविष्कारक थे, उनके समय में उन्होंने पुरे US के 1093 पेटेंट्स अपने कब्जे में कर रखे थे, और इसके अलावा यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस और जर्मनी में भी उनके कई सारे पेटेंट्स है।

उनके इन सभी पेटेंट्स का उनके आविष्कारों पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे एक वैज्ञानिक ही नही बल्कि एक सफल उद्यमी भी थे। वे हर दिन अपने काम करने के बाद बचे समय को प्रयोग और परिक्षण में लगते थे।

उन्होंने अपनी कल्पना शक्ति और स्मरण शक्ति का उपयोग अपने व्यवसाय को आगे बढ़ाने में लगाया।

उनके इसी टैलेंट की बदौलत उन्होंने 14 कंपनियों की स्थापना की जिनमे जनरल इलेक्ट्रिक भी शामिल है, जो आज भी दुनिया की सबसे बड़ी व्यापर करने वाली कंपनी के नाम से जानी जाती है।

प्रथम विश्वयुद्ध में एडिसन ने जलसेना सलाहकार बोर्ड का अध्यक्ष बनकर 40 युद्धोपयोगी आविष्कार किए। पनामा पैसिफ़िक प्रदर्शनी ने 21 अक्टूबर 1915 ई।

को एडिसन दिवस का आयोजन करके विश्वकल्याण के लिए सबसे अधिक अविष्कारों के इस उपजाता को संमानित किया। 1927 ई। में एडिसन नैशनल ऐकैडमी ऑव साइंसेज़ के सदस्य निर्वाचित हुए।

21 अक्टूबर 1929 को राष्ट्रपति दूसरे ने अपने विशिष्ट अतिथि के रूप में एडिसन का अभिवादन किया। सन् 1912 मे इन्हे अपने पुराने सहयोगी टेल्सा के साथ नोबेल पुरूस्कार मिलने को था लेकिन टेल्सा एडीसन के साथ नोबेल पुरूस्कार लेने से इनकार कर दिए, इस कारण दोनो ही वैज्ञानिक नोबेल पुरूस्कार से वंचित रह गए।

वे जीवन की अंतिम सांसो तक खोज कार्य मे लगे रहे। मृत्यु को भी उन्होंने गुरुतर प्रयोगों के लिए दूसरी प्रयोगशाला में पदार्पण समझा। “”मैंने अपना जीवनकार्य पूर्ण किया। अब मैं दूसरे प्रयोग के लिए तैयार हूँ””, इस भावना के साथ विश्व की इस महान उपकारक विभूति ने 18 अक्टूबर 1931 को संसार से विदा ली।
सचिन तेंदुलकर ने समय के साथ रनों का अम्बार लगा दिया है।

उन्होंने 29 जून, 2007 को दक्षिण अफ्रीका के विरुद्ध बेलाफास्ट (आयरलैंड) में खेलते हुए एक दिवसीय मैचों में 15000 रन पूरे कर लिए।

इतने रन बनाने के बाद सचिन। विश्व के ऐसे प्रथम खिलाड़ी बन गए, जिंन्होंने इतने बड़े आंकड़े को छुआ है।

विश्व के श्रेष्ठतम बल्लेबाज माने जाने वाले आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज डॉन ब्रैडमैन ने एक बार सचिन के बारे में कहा था- ”मैंने उसे टीवी पर खेलते हुए देखा और उसकी खेल तकनीक देखकर दंग रह गया। तब मैंने अपनी पत्नी को अपने पास बुला कर उसे देखने को कहा। हालांकि मैंने स्वयं को खेलते हुए कभी नही देखा, लेकिन मुझे महसूस होता है कि यह खिलाड़ी ठीक वैसा ही खेलता है जैसा मैं खेलता था।”

वास्तव में सचिन क्रिकेट का हीरो और एक ऐसा रोल मॉडल है जिसे सभी भारतीय पसन्द करते हैं। कल की सी बात लगती है जब सचिन तेंदुलकर क्रिकेट क्षेत्र में उतरा-एक घुंघराले बालों वाला 15 वर्षीय सचिन, जिसकी भर्राई सी आवाज ने लोगों के दिल में स्थान बना लिया।

वह लगभग 15 वर्ष का ही था जब उसने 1988 में स्कूल के क्रिकेट मैच में काम्बली के साथ 664 रन बनाए थे। लोग उसके खेल का करिश्माई अंदाज़ देखते ही रह गए थे।

इसके बाद उसका क्रिकेट के मैदान में अन्तरराष्ट्रीय मैचों में प्रदर्शन इतना अच्छा रहा है कि लोग कहते हैं कि वह वाकई लाजवाब है।

सचिन तेंदुलकर ने 1989-90 में कराची में पाकिस्तान के विरुद्ध अपना पहला टैस्ट मैच खेल कर अपने क्रिकेट कैरियर की शुरुआत की थी।

तब से अब तक के कैरियर में सचिन ने उन ऊंचाइयों को छू लिया है, जिसे छूना किसी अन्य क्रिकेट खिलाड़ी के लिए शायद ही सम्भव हो सके।

आक्रामक बल्लेबाजी उसका अंदाज है। उसका बल्ला यूं घूमता है कि दर्शकों को अचम्भित कर देता है। यदि वह जल्दी आउट भी हो जाता है तो भी अक्सर अपना करिश्मा दिखा ही जाता है।

गेंदबाजी में भी वह अपना करिश्मा कभी-कभी दिखा देता है। एक दिवसीय मैचों में दस हजार से अधिक रन बनाने वाला वह पहला बल्लेबाज है। उसने सौ से अधिक विकेट लेने का करिश्मा भी दर्शकों को दिखाया है। सचिन ने दर्शकों के मानस पटल पर अपने खेल की अविस्मरणीय छाप छोड़ी है।

उसने 20 टैस्टों और एक दिवसीय मैचों में अनेकों शतक व हजारों रन बना डाले हैं जितने आज तक कोई नहीं बना सका है।

जब सचिन केवल 11 वर्ष का था, तब वह बेहद शैतान था। मां-बाप को वह अपनी शैतानियों से परेशान करता रहता था।

एक बार वह शैतानी करते हुए पेड़ से गिर गया। तब सचिन के बड़े भाई अजीत के दिमाग में विचार आया कि उसे क्रिकेट की कोचिंग क्लास के लिए भेज दिया जाए ताकि उसकी अतिरिक्त ऊर्जा खेलों में खर्च हो सके। कहा जा सकता है कि यह सचिन की अतिविशिष्ट जिन्दगी की शुरुआत थी।

आज सचिन 100 टैस्ट मैच खेलने वाला विश्व का 17वां खिलाड़ी बन चुका है।

सचिन ने 1989 में पाकिस्तान के विरुद्ध प्रथम अन्तरराष्ट्रीय मैच खेला था। तब सचिन केवल 16 वर्ष का था और प्रथम पारी में वह बहुत ही नर्वस व घबराया हुआ था। सचिन को तब यूं महसूस हुआ था कि शायद वह जिन्दगी में आगे अन्तरराष्ट्रीय मैच और नहीं खेल सकेगा।

अकरम और वकार की तेज गेंदों के सामने वह केवल 15 रन ही बना सका था। लेकिन दूसरे टेस्ट में जब उसे खेलने का मौका मिला तब उसने 59 रन बना लिए और उसके भीतर आत्मविश्वास जाग उठा।

सचिन देखने में सीधा-सादा इंसान है। वह अति प्रसिद्ध हो जाने पर भी नम्र स्वभाव का है।

वह अपने अच्छे व्यवहार का श्रेय अपने पिता को देता है। उसका कहना है- ”मैं जो कुछ भी हूं अपने पिता के कारण हूँ। उन्होंने मुझ में सादगी और ईमानदारी के गुण भर दिए हैं। वह मराठी साहित्य के शिक्षक थे और हमेशा समझाते थे कि जिन्दगी को बहुत गम्भीरता से जीना चाहिए। जब उन्हें अहसास हुआ कि शिक्षा नहीं, क्रिकेट मेरे जीवन का हिस्सा बनने वाली है, उन्होंने उस बात का बुरा नहीं माना। उन्होंने मुझसे कहा कि ईमानदारी से खेलो और अपना स्तर अच्छे से अच्छा बनाए रखो। मेहनत से कभी मत घबराओ।”

सचिन को भारतीय क्रिकेट टीम का कैप्टन बनाया गया था, परन्तु 2000 में उन्होंने मोहम्मद अजहरूद्‌दीन के आने के बाद वह पद छोड़ दिया।

सचिन, जिसे सुपर स्टार कहा जाता है, जीनियस कहा जाता है, जिसका एह-एक स्ट्रोक महत्त्वपूर्ण माना जाता है, अपने पुराने मित्रों को आज भी नहीं भूला है चाहे वह विनोद काम्बली हो या संजय मांजरेकर। जब मुम्बई की टीम में सचिन ने खेलना आरम्भ किया था तो संजय ने राष्ट्रीय टीम की ओर से खेला था। ये दोनों पुराने मित्र हैं।

क्रिकेट के अतिरिक्त सचिन को संगीत सुनना और फिल्में देखना पसन्द है। सचिन क्रिकेट को अपनी जिन्दगी और अपना खून मानते हैं।

क्रिकेट के कारण प्रसिद्धि पा जाने पर वह किस चीज का आनन्द नहीं ले पाते-यह पूछने पर वह कहते हैं कि दोस्तों के साथ टेनिस की गेंद से क्रिकेट खेलना याद आता है।

29 वर्ष और 134 दिन की उम्र में सचिन ने अपना 100वां टैस्ट इंग्लैण्ड के खिलाफ खेला।

5 सितम्बर, 2002 को ओवल में खेले गए इस मैच से सचिन 100वां टैस्ट खेलने वाला सबसे कम उम्र का खिलाड़ी बन गया।

सचिन के क्रिकेट खेल की औपचारिक शुरुआत तभी हो गई जब 12 वर्ष की उम्र में क्लब क्रिकेट (कांगा लीग) के लिए उसने खेला।

सचिन बड़ी-बड़ी कम्पनियों का ब्रांड एम्बेसडर बना है। एम. आर. एफ. टायर, पेप्सी, एडिडास, वीजा मास्टर कार्ड, फिएट पैलियो जैसी नामी कम्पनियों ने उसे अपना ब्रांड एम्बेसडर बनाया। बड़ी कम्पनियों में विज्ञापन के लिए उसकी सबसे ज्यादा मांग है।

1995 में सचिन ने 70 लाख पचास हजार (7.5 मिलियन) डालर का वर्ल्ड टेल कम्पनी के साथ 5 वर्षीय अनुबंध किया।

इससे सचिन विश्व का सबसे धनी क्रिकेट खिलाड़ी बन गया। इसके पूर्व ब्रायनलारा ने ब्रिटेन की कम्पनी के साथ सर्वाधिक 10 लाख 20 हजार डॉलर का अनुबंध किया था। सचिन ने 2002 में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया।

अन्तरराष्ट्रीय मैचों में 20000 रन बनाने वाला वह एकमात्र खिलाड़ी बन गया है। उसने 102 टेस्ट मैचों में खेली गई 162 पारी में 8461 रन बनाने के अतिरिक्त 300 एक दिवसीय मैचों में 11544 रन बनाने का रिकार्ड स्थापित किया है।

उसके बारे में कहा जाता है वह विवियन रिचर्ड, मार्क वा, ब्रायन लारा सब को मिलाकर एक है। तेंदुलकर मानो एक आदमी की सेना है। वह शतक बनाता है, उसे गेंद दे दो, वह विकेट ले लेता है, वह टीम के अच्छे फील्डरों में से एक है। हम भाग्यशाली हैं कि वह भारतीय हैं।

25 मई, 1995 को सचिन ने डाक्टर अंजलि मेहता से विवाह कर लिया। उनके दो बच्चे हैं। बड़ी बच्ची का नाम ‘सराह’ है जिसका अर्थ है कीमती। छोटा बच्चा बेटा है।

सचिन की अंजलि से 1990 में मुलाकात हुई। सचिन ने एक बार इंटरव्यू में कहा था- ”मुझे उससे प्यार इसलिए हो गया क्योंकि उसके गाल गुलाबी हो उठते हैं।”

सचिन का पूरा नाम सचिन रमेश तेंदुलकर है।

उसका नाम उसके माता-पिता ने अपने पंसदीदा संगीत निर्देशक सचिन देव बर्मन के नाम पर रखा।

सचिन ने अपना पहला साक्षात्कार दादर के एक ईरानी रेस्टोरेंट में अपने बड़े भाई से दिलवाया था क्योंकि तब उसमें अधिक आत्मविश्वास नहीं था।

सचिन को बचपन में क्रिकेट से कोई विशेष लगाव न था। क्रिकेट में शामिल होने पर वह तेज गेंदबाज बनना चाहता था, इसलिए डेनिस लिली से प्रशिक्षण के लिए एम. आर. एफ. पेस एकेडमी में गया। तब उसे बताया गया कि उसे बल्लेबाजी पर ध्यान लगाना चाहिए।

सचिन को अपनी मां के हाथ का भोजन बहुत पसन्द है विशेषकर सी-फूड। इस कारण उसके आने पर वह विशेष रूप से मछली मंगवाती है।

• सचिन के बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य

मात्र बारह वर्ष की उम्र में सचिन ने क्लब क्रिक्रेट (कांगा लीग) मे खेलना शुरू किया।

बाम्बे स्कूल क्रिकेट टूर्नामेट में अपना पहला शतक 1936 में बनाया। फिर अगले वर्ष स्कूल क्रिकेट में 1200 रन बनाए जिनमें दो तिहरे शतक भी शामिल थे।

1988-89 में सचिन ने रणजी ट्राफी में बम्बई की तरफ से खेला और शतक बनाया। वह बम्बई की तरफ से खेलने वाला अब तक का सबसे कम उम्र का खिलाड़ी था। अगले वर्ष वह ईरानी ट्राफी के लिए टीम में शामिल हुआ और 103 रन बनाए।

उसके पश्चात् दलीप ट्राफी में शामिल होने पर पश्चिमी जोन की ओर पूर्वी जोन के विरुद्ध 151 रन बनाए। इस प्रकार तीनों देशीय टूर्नामेंट में प्रथम बार भाग लेने पर शतक लगाने वाला प्रथम भारतीय खिलाड़ी बन गया।

जब सचिन और विनोद काम्बली ने मिल कर सेट जेवियर्स के विरुद्ध शारदाश्रम के 664 रन बनाए तब किसी भी क्रिकेट खेल के लिए यह विश्व रिकार्ड बन गया। इसमें सचिन ने 326 नाट आउट का स्कोर बनाया। फिर बाम्बे क्रिकेट की ओर से उसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट खिलाड़ी घोषित किया गया।


1991 में 18 वर्ष की आयु में सचिन यार्कशायर का प्रतिनिधित्व करने वाला प्रथम खिलाड़ी बना। उस वर्ष उसे ‘वर्ष का क्रिकेटर’ चुना गया।

1992 में वह पहला खिलाड़ी बना जिसे तीसरे अम्पायर द्वारा आउट करार दिया गया।

सचिन ने अपने खेल की शुरुआत से लगातार हर टैस्ट मैच खेला और लगातार 84 टैस्ट खेले।

सचिन 29 वर्ष 134 दिन की आयु में 100वां टैस्ट मैच खेलने वाला सबसे कम आयु का खिलाड़ी बना।

सचिन का पहला टैस्ट 1989 में कराची में हुआ जो कपिल का 100 वां टैस्ट मैच था।

जिन खिलाड़ियों ने 100 या अधिक टैस्ट मैच खेले हैं, उनमें सचिन का औसत सर्वाधिक है यानी 57।99। जब कि उसके बाद मियादाद का 57।57 है और गावस्कर का (51।12)।

‘राजीव गाधी खेल रत्न’ पुरस्कार पाने वाला वर्ष 2006 तक सचिन एकमात्र क्रिकेटर हैं।
1992 में 19 वर्ष की आयु में टैस्ट मैच में 1000 रन बनाने वाला सचिन विश्व का सबसे कम उम्र का खिलाड़ी है।

20 वर्ष की आयु से पूर्व टैस्ट मैच में 5 शतक बनाने वाला सचिन प्रथम व एकमात्र खिलाड़ी है।

सचिन ने अपना पहला टैस्ट शतक इंग्लैंड के विरुद्ध बनाया। तब उसने 119 रन बनाए और नॉट आउट रहा। पाकिस्तान के मुश्ताक मोहम्मद के बाद सचिन सबसे कम आयु का दूसरा खिलाड़ी है।

अक्टूबर 2002 में सचिन 20000 रन बना कर अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट में इतने रन बनाने वाला विश्व का प्रथम बल्लेबाज बन गया।

जुलाई, 2002 में ‘विजडन’ (लन्दन) द्वारा सचिन को ‘पीपुल्स च्वाइस’ अवार्ड दिया गया।

सचिन दुनियां का सफलतम बल्लेबाज है। 10 दिसम्बर, 2005 को सचिन 38 शतकों के साथ वन डे में सर्वाधिक 13909 रन बनाने वाला खिलाड़ी बना।

अगस्त 2004 तक सचिन ने 69 अर्द्धशतक बनाकर पाकिस्तान के कप्तान इंजमाम उल-हक के एक दिवसीय मैचों में सर्वाधिक अर्द्धशतक की बराबरी कर ली। सचिन ने 339 मैचों में 69 अर्द्धशतक लगाए।
 जबकि इंजमाम ने 317 मैचों में 69 अर्धशतकशतक बनाए।

सचिन 38 शतक बनाकर विश्व रिकार्ड बना चुका है।

सचिन ने 339 मैचों में 13415 रन बना लिए और विश्व में एक दिवसीय मैचों में सर्वाधिक रन बनाने वाले खिलाड़ी बने, तब तक इजंमाम 317 मैचों में 9897 रन बनाकर रन बनाने के मामले में दूसरे नम्बर पर थे।

सचिन से पूर्व अजहरुद्दीन ने सर्वाधिक 334 एक दिवसीय मैच खेले थे। सचिन ने अगस्त 2004 तक 339 मैच खेल कर अजहरुद्दीन के रिकार्ड को पीछे छोड़ दिया और भारत का सर्वाधिक मैच खेलने वाला खिलाड़ी बन गया।

339 मैच खेलने के बाद भी सचिन विश्व में दूसरे नम्बर का खिलाड़ी है। विश्व का सर्वाधिक एक दिवसीय मैच खेलने वाला खिलाड़ी पाकिस्तान का पूर्व कप्तान वसीम अकरम है जिसने 356 मैच खेले।

50 बार वह ‘मैन ऑफ द मैच’ का पुरस्कार जीत चुका है। यह एक रिकार्ड है।

10 दिसम्बर 2005 को सचिन ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटल मैदान पर टैस्ट मैचों में सर्वाधिक शतक (34 शतक) बनाने का सुनील गावस्कर का रिकार्ड तोड़ दिया और अपना 35वां शतक श्रीलंका के खिलाफ बनाया। इस टेस्ट मैच में उसने गावस्कर के 125 टैस्ट खेलने के रिकार्ड की भी बराबरी की।

टेस्ट मैच में दस हजार से अधिक रन बनाने वाले सचिन सबसे युवा खिलाड़ी हैं।

विज्ञापनों की दुनिया का उन्हें बादशाह कहा जाता है। सारे रिकार्ड तोड़ते हुए 2006 में उन्होंने आइकोनिक्स से 6 वर्ष के लिए 180 करोड़ का अनुबंध किया। इससे पूर्व उन्होंने वर्ल्ड टेल के साथ 5 वर्ष का 100 करोड़ का अनुबंध किया था।

वह वन डे में सर्वाधिक 13909 रन (दिसम्बर-2005 तक) बना चुके थे।
हीरो होंडा स्पोर्ट्स अकादमी ने वर्ष 2004 के लिए सचिन
तेंदुलकर को क्रिकेट का श्रेष्ठतम खिलाड़ी नामांकित किया।

मई 2006 तक सचिन 132 टैस्ट मैचों में 19469 रन और 362 वन डे मैचों में 14146 रन बना चुके थे।

सचिन को अक्सर क्रिकेट का भगवान कहा जाता है। सचिन से यह पूछे जाने पर कि उन्हें यह सुनकर कैसा लगता है, उनका कहना था- ”मैं देवता नहीं हूं। लेकिन खुशी मिलती है जब मेरे देश के लोग मुझ पर इतना भरोसा जताते हैं। मैं देश के भाई-बहनों के चेहरे पर मुस्कान ला सकूं इससे बड़ी बात क्या होगी। भगवान ने यह वरदान दिया है।

35वां शतक बनाने पर सचिन ने कहा- ”वैसे तो सभी शतक महत्त्वपूर्ण रहे हैं। मैने पहला शतक 17 वर्ष की उम्र में इंग्लैंड के खिलाफ ओल्ड ट्रेफर्ड में जमाया था। पहला होने के कारण वह भी यादगार है और यह 35वां शतक भी सबसे यादगार रहेगा।” सचिन को भगवान में पूरा विश्वास है। साईं बाबा और गणपति के वह अनन्य भक्त हैं।

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24 फरवरी 1955 को केलिफोर्निया में जन्मे स्टीव जॉब्स का जीवन जन्म से हि संघर्ष पूर्ण था, उनकी माँ अविवाहित कॉलेज छात्रा थी। और इसी कारण वे उन्हें रखना नहीं चाहती थी, और स्टीव जॉब्स को किसी अच्छे परिवार में गोद देने का फैसला कर दिया। लेकिन जो गोद लेने वाले थे उन्होंने ये कहकर मना कर दिया की वे लड़की को गोद लेना चाहते हैं।

फिर स्टीव जॉब्स को केलिफोर्निया में रहने वाले पॉल और कालरा जॉब्स ने गोद ले लिया। पॉल और कालरा दोनों ही ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे और मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखते थे।

जब स्टीव जॉब्स 5 साल के हुए, तब उनका परिवार केलिफोर्निया के पास हि स्थित माउंटेन व्यू चला गया। पॉल मैकेनिक थे, और स्टीव को इलेक्ट्रॉनिक की चीजो के बारे में और कालरा एकाउंटेंट थी इसलिए वे स्टीव की पढाई में मदद किया करती थी।

स्टीव ने मोंटा लोमा स्कूल में दाखिला लिया और वही पर अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी की।

इसके बाद वे उच्च शिक्षा कूपटिर्नो जूनियर हाई स्कूल से पूरी की। और सन 1972 में अपनी कॉलेज की पढाई के लिए ओरेगन के रीड कॉल में दाखिला लिया जो की वहां की सबसे महंगी कॉलेज थी।

स्टीव पढने में बहुत ही ज्यादा अच्छे थे लेकिन, उनके माता-पिता पूरी फीस नहीं भर पाते थे, इसलिए स्टीव ने फीस भरने के लिए बोतल के कोक को बेचकर पैसे जुटाते, और पैसे की कमी के कारण मंदिरों में जाकर वहा मिलने वाले मुफ्त खाना खाया करते थे। और अपने होस्टल का किराया बचाने के लिए अपने दोस्तों के कमरों में जमीन पर हि सो जाया करते थे।

इतनी बचत के बावजूद फीस के पैसे पुरे नहीं जुटा पाते और अपने माता-पिता को कढ़ी मेहनत करता देख उन्होंने कॉलेज छोड़कर उनकी मदद करने की सोची। लेकिन उनके माता-पिता उनसे सहमत नहीं थे।

इसलिए अपने माता-पिता के कहने पर कॉलेज में नहीं जाने के स्थान पर क्रेटीव क्लासेज (creative classes) जाना स्वीकार किया।

जल्दी ही उसमे स्टीव को रूचि बढ़ने लगी। क्लासेस जाने के साथ-साथ वे अटारी नाम की कंपनी में technician का काम करने लगे। स्टीव आध्यात्मिक जीवन में बहुत विश्वास करते थे, इसलिए स्टीव अपने धर्म गुरु से मिलने भारत आए।

और काफी समय भारत में गुजारा। भारत में रहने के दौरान उन्होंने पूरी तरह बौद्ध धर्म को अपना लिया और बौद्ध भिक्षु के जैसे कपडे पहनना शुरू किया। और पूरी तरह आध्यातिमिक हो गये। और भारत से वापिस कैलिफ़ोर्निया चले गए।

• एप्पल कंपनी की शुरुआत


सन 1976 में मात्र 20 वर्ष की उम्र में उन्होंने एप्पल Apple कंपनी की शुरुआत कि।

स्टीव ने अपने स्कूल के सहपाठी मित्र वोजनियाक के साथ मिल कर अपने पिता के गैरेज में ऑपरेटिंग सिस्टम मेकिनटोश तैयार किया। और इसे बेचने के लिए एप्पल कंप्यूटर का निर्माण करना चाहते थे।

लेकिन पैसो की कमी के कारण समस्या आ रही थी। लेकिन उनकी ये समस्या उनके एक मित्र माइक मर्कुल्ला ने दूर कर दि साथ ही वे कंपनी में साझेदार भी बन गये। और स्टीव ने एप्पल कंप्यूटर बनाने की शुरुआत की।

साथ हि उन्होंने अपने साथ काम करने के लिए Pepsi, Coca Cola कंपनी के मुख्य अधिकारी जॉन स्कली को भी शामिल कर लिया। स्टीव और उनके मित्रो की कढ़ी मेहनत के कारण कुछ ही सालो में एप्पल कंपनी गैराज से बढ़कर 2 अरब डॉलर और 4000 कर्मचारियो वाली कंपनी बन चुकी थी।

• एप्पल कंपनी से इस्तीफा

लेकिन उनकी ये उपलब्धि ज्यादा देर तक नहीं रही, उनके साझेदारो द्वारा उनको ना पसंद किये जाने और आपस में कहासुनी के कारण एप्पल कंपनी की लोकप्रियता कम होने लगी।

धीरे-धीरे कंपनी पूरी तरह कर्ज में डूब गयी। और बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर की मीटिंग में सारे दोष स्टीव का ठहराकर सन 1985 में उन्हें एप्पल कंपनी से बाहर कर दिया।

ये उनके जीवन का सबसे दुखद पल था। क्योकि जिस कंपनी को उन्होंने कढ़ी मेहनत और लग्न से बनाया था उसी से उन्हें निकाल दिया गया था।

स्टीव के जाते ही कंपनी पूरी तरह कर्ज में डूब गयी। एप्पल से इस्तीफा देने के 5 साल बाद उन्होंने Next-ink नाम की और Pixer नाम की दो कंपनियों की शुरुआत की।

Next-ink में उपयोग की जाने वाली तकनीक उत्तम थी। और उनका उदेश्य बेहतरीन सॉफ्टवेर बनाना था। और Pixer कंपनी में animation का काम होता था।

एक साल तक काम करने के बाद पैसो की समस्या आने लगी और Rosh perot के साथ साझेदारी कर ली। और पेरोट ने अपने पैसो का निवेश किया।

सन 1990 में Next-ink ने पहला कंप्यूटर बाज़ार में उतारा लेकिन बहुत ही ज्यादा महंगा होने के कारण बाजार में नहीं चल सका।

फिर Next-ink ने Inter personal computer बनाया जो बहुत ही ज्यादा लोक प्रिय हुआ। और Pixer ने एनिमेटेड फिल्म Toy story बनायीं जो अब तक की सबसे बेहतरीन फिल्म हैं।

• एप्पल कंपनी में वापसी

सन 1996 में एप्पल ने स्टीव की Pixer को ख़रीदा इस तरह उनके एप्पल में वापसी हुई। साथ ही वे एप्पल के chief executive officer बन गये।

सन 1997 में उनकी मेहनत के कारण कंपनी का मुनाफा बढ़ गया और वे एप्पल के सी.इ.ओ. बन गये।

सन 1998 में उन्होंने आईमैक I-mac को बाज़ार में लॉन्च किया, जो काफी लोकप्रिय हुआ। और एप्पल ने बहुत ही बड़ी सफलता हासिल कर ली।

उसके बाद I-pad, I-phone, I-tune भी लॉन्च किये। सन 2011 में सी.इ.ओ. पद से इस्तीफा दे दिया और बोर्ड के अध्यक्ष बन गये।

उस वक्त उनकी प्रॉपर्टी $7.0 बिलियन हो गयी थी। और apple दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी बन गयी थी।

• निधन

स्टीव को सन 2003 से pain creative नाम की कैंसर की बिमारी हो गयी थी।

लेकिन फिर भी वे रोज कंपनी में जाते ताकि लोगो को बेहतरीन से बेहतरीन टेक्नोलॉजी प्रदान कर सके और कैंसर की बिमारी के चलते 5 Oct. 2011 को Paalo Aalto केलिफोर्निया में उनका निधन हो गया।

From : sktalk2020
श्रीनिवास रामानुजन् इयंगर एक महान भारतीय गणितज्ञ थे।

उन्हें आधुनिक काल के महानतम गणित विचारकों में गिना जाता है।

उन्हें गणित में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर भी उन्होंने विश्लेषण एवं संख्या सिद्धांत के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिये। उन्होंने गणित के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण प्रयोग किये थे जो आज भी उपयोग किये जाते है।

उनके प्रयोगों को उस समय जल्द ही भारतीय गणितज्ञो ने मान्यता दे दी थी। जब उनका हुनर ज्यादातर गणितज्ञो के समुदाय को दिखाई देने लगा, तब उन्होंने इंग्लिश गणितज्ञ जी.एच्. हार्डी से भागीदारी कर ली। उन्होंने पुराने प्रचलित थ्योरम की पुनः खोज की ताकि उसमे कुछ बदलाव करके नया थ्योरम बना सके।

श्रीनिवास रामानुजन ज्यादा उम्र तक तो जी नही पाये लेकिन अपने छोटे जीवन में ही उन्होंने लगभग 3900 के आस-पास प्रमेयों का संकलन किया।

इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किये जा चुके है। और उनके अधिकांश प्रमेय लोग जानते है। उनके बहुत से परीणाम जैसे की रामानुजन प्राइम और रामानुजन थीटा बहुत प्रसिद्ध है। ये उनके महत्वपूर्ण प्रमेयों में से एक है।

उनके काम को उन्होंने उनके अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन रामानुजन जर्नल में भी प्रकाशित किया है, ताकि उनके गणित प्रयोगों को सारी दुनिया जान सके और पूरी दुनिया में उनका उपयोग हो सके।

उनका यह अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन पुरे विश्व में प्रसिद्ध हो गया था, और काफी लोग गणित के क्षेत्र में उनके अतुल्य योगदान से प्रभावित भी हुए थे।

• प्रारंभिक जीवन

श्रीनिवास रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को भारत के दक्षिणी भूभाग में स्थित कोयंबटूर के ईरोड, मद्रास (अभी का तमिलनाडु) नाम के गांव में हुआ था।

वह पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। उनके पिता श्रीनिवास अय्यंगर जिले की ही एक साडी की दुकान में क्लर्क थे।

उनकी माता, कोमल तम्मल एक गृहिणी थी और साथ ही स्थानिक मंदिर की गायिका थी। वे अपने परीवार के साथ कुम्भकोणम गाव में सारंगपाणी स्ट्रीट के पास अपने पुराने घर में रहते थे।

उनका परीवारीक घर आज एक म्यूजियम है। जब रामानुजन देड (1/5) साल के थे, तभी उनकी माता ने एक और बेटे सदगोपन को जन्म दिया, जिसका बाद में तीन महीनो के भीतर ही देहांत हो गया।

दिसंबर 1889 में, रामानुजन को चेचक की बीमारी हो गयी, इस बीमारी से पिछले एक साल में उनके जिले के हजारो लोग मारे गए थे, लेकिन रामानुजन जल्द ही इस बीमारी से ठीक हो गये थे।

इसके बाद वे अपने माता के साथ मद्रास (चेन्नई) के पास के गाव कांचीपुरम में माता-पिता के घर में रहने चले गए।

नवंबर 1891 और फीर 1894 में, उनकी माता ने दो और बच्चों को जन्म दिया, लेकिन फिर से उनके दोनों बच्चो की बचपन में ही मृत्यु हो गयी।

1 अक्टूबर 1892 को श्रीनिवास रामानुजन को स्थानिक स्कूल में डाला गया। मार्च 1894 में, उन्हें तामील मीडियम स्कूल में डाला गया।

उनके नाना के कांचीपुरम के कोर्ट में कर रहे जॉब को खो देने के बाद, रामानुजन और उनकी माता कुम्भकोणम गाव वापिस आ गयी और उन्होंने रामानुजन को कंगयां प्राइमरी स्कूल में डाला।

जब उनके दादा का देहांत हुआ, तो रामानुजन को उनके नाना के पास भेज दिया गया, जो बाद में मद्रास में रहने लगे थे।

रामानुजन को मद्रास में स्कूल जाना पसन्द नही था, इसीलिए वे ज्यादातर स्कूल नही जाते थे। उनके परिवार ने रामानुजन के लिये एक चौकीदार भी रखा था ताकि रामानुजन रोज स्कूल जा सके।

और इस तरह 6 महीने के भीतर ही रामानुजन कुम्भकोणम वापिस आ गये। जब ज्यादातर समय रामानुजन के पिता काम में व्यस्त रहते थे, तब उनकी माँ उनकी बहुत अच्छे से देखभाल करती थी।

रामानुजन को अपनी माता से काफी लगाव था। अपनी माँ से रामानुजन ने प्राचीन परम्पराओ और पुराणों के बारे में सीखा था।

उन्होंने बहुत से धार्मिक भजनों को गाना भी सीख लिया था ताकि वे आसानी से मंदिर में कभी-कभी गा सके। ब्राह्मण होने की वजह से ये सब उनके परीवार का ही एक भाग था।

कंगयां प्राइमरी स्कूल में, रामानुजन एक होनहार छात्र थे।

बस 10 साल की आयु से पहले, नवंबर 1897 में, उन्होंने इंग्लिश, तमिल, भूगोल और गणित की प्राइमरी परीक्षा उत्तीर्ण की और पुरे जिले में उनका पहला स्थान आया। उसी साल, रामानुजन शहर की उच्च माध्यमिक स्कूल में गये जहा पहली बार उन्होंने गणित का अभ्यास किया।

• श्रीनिवास रामानुजन बचपन

11 वर्ष की आयु से ही श्रीनिवास रामानुजन अपने ही घर पर किराये से रह रहे दो विद्यार्थियो से गणित का अभ्यास करना शुरू किया था।

बाद में उन्होंने एस.एल. लोनी द्वारा लिखित एडवांस ट्रिग्नोमेट्री का अभ्यास किया।

13 साल की अल्पायु में ही वे उस किताब के मास्टर बन चुके थे और उन्होंने खुद कई सारे थ्योरम की खोज की।

14 वर्ष की आयु में उन्हें अपने योगदान के लिये मेरिट सर्टिफिकेट भी दिया गया और साथ ही अपनी स्कूल शिक्षा पुरी करने के लिए कई सारे अकादमिक पुरस्कार भी दिए गए और सांभर तंत्र की स्कूल में उन्हें 1200 विद्यार्थी और 35 शिक्षको के साथ प्रवेश दिया गया।

गणित की परीक्षा उन्होंने दिए गए समय से आधे समय में ही पूरी कर ली थी। और उनके उत्तरो से ऐसा लग रहा था जैसे ज्योमेट्री और अनंत सीरीज से उनका घरेलु सम्बन्ध हो।

रामानुजन ने 1902 में घनाकार समीकरणों को आसानी से हल करने के उपाय भी बताये और बाद में क्वार्टीक (Quartic) को हल करने की अपनी विधि बनाने में लग गए।

उसी साल उन्होंने जाना की क्विन्टिक (Quintic) को रेडिकल्स (Radicals) की सहायता से हल नही किया जा सकता।

सन् 1905 में श्रीनिवास रामानुजन मद्रास विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में सम्मिलित हुए परंतु गणित को छोड़कर शेष सभी विषयों में वे अनुत्तीर्ण हो गए।

कुछ समय बाद 1906 एवं 1907 में रामानुजन ने फिर से बारहवीं कक्षा की प्राइवेट परीक्षा दी और अनुत्तीर्ण हो गए।

रामानुजन 12वीं में दो बार फेल हुए थे और इससे पहले उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पहले दरजे से पास की थी।

जिस गवर्नमेंट कॉलेज में पढ़ते हुए वे दो बार फेल हुए, बाद में उस कॉलेज का नाम बदल कर उनके नाम पर ही रखा गया।

श्रीनिवास रामानुजन जब मैट्रिक कक्षा में पढ़ रहे थे उसी समय उन्हें स्थानीय कॉलेज की लाइब्रेरी से गणित का एक ग्रन्थ मिला, ‘ए सिनोप्सिस आफ एलीमेंट्री रिजल्ट्स इन प्योर एंड एप्लाइड मैथमेटिक्स (Synopsis of Elementary Results in Pure and Applied Mathematics)’ लेखक थे ‘जार्ज एस. कार्र (George Shoobridge Carr)’ रामानुजन ने जार्ज एस. कार्र की गणित के परिणामों पर लिखी किताब पढ़ी और इस पुस्तक से प्रभावित होकर स्वयं ही गणित पर कार्य करना प्रारंभ कर दिया।

इस पुस्तक में उच्च गणित के कुल 5000 फार्मूले दिये गये थे। जिन्हें रामानुजन ने केवल 16 साल की आयु में पूरी तरह आत्मसात कर लिया था।

1904 में हायर सेकेंडरी स्कूल से जब रामानुजन ग्रेजुएट हुए तो गणित में उनके अतुल्य योगदान के लिये उन्हें स्कूल के हेडमास्टर कृष्णास्वामी अय्यर द्वारा उन्हें के.रंगनाथ राव पुरस्कार दिया गया।

जिसमे रामानुजन को एक होनहार और बुद्धिमान विद्यार्थी बताया गया था। उन्होंने उस समय परीक्षा में सर्वाधिक गुण प्राप्त किये थे। इसे देखते हुए गवर्नमेंट आर्ट कॉलेज, कुम्बकोणं में पढ़ने के लिये उन्हें शिष्यवृत्ति दी गयी।

लेकीन गणित में ज्यादा रूचि होने की वजह से रामानुजम दुसरे विषयो पर ध्यान नही दे पाते थे। 1905 में वे घर से भाग गए थे, और विशाखापत्तनम में 1 महीने तक राजमुंदरी के घर रहने लगे। और बाद में मद्रास के महाविद्यालय में पढ़ने लगे।

लेकिन बाद में बीच में ही उन्होंने वह कॉलेज छोड़ दिया। विद्यालय छोड़ने के बाद का पांच वर्षों का समय इनके लिए बहुत हताशा भरा था। भारत इस समय परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा था। चारों तरफ भयंकर ग़रीबी थी।

ऐसे समय में रामानुजन के पास न कोई नौकरी थी और न ही किसी संस्थान अथवा प्रोफ़ेसर के साथ काम करने का मौका। बस उनका ईश्वर पर अटूट विश्वास और गणित के प्रति अगाध श्रद्धा ने उन्हें कर्तव्य मार्ग पर चलने के लिए सदैव प्रेरित किया।

• श्रीनिवास रामानुजन के प्रमुख कार्य

रामानुजन और इनके द्वारा किए गए अधिकांश कार्य अभी भी वैज्ञानिकों के लिए अबूझ पहेली बने हुए हैं। एक बहुत ही सामान्य परिवार में जन्म ले कर पूरे विश्व को आश्चर्यचकित करने की अपनी इस यात्रा में इन्होने भारत को अपूर्व गौरव प्रदान किया।

श्रीनिवास रामानुजन अधिकतर गणित के महाज्ञानी भी कहलाते है। उस समय के महान व्यक्ति लोन्हार्ड यूलर और कार्ल जैकोबी भी उन्हें खासा पसंद करते थे। जिनमे हार्डी के साथ रामानुजन ने विभाजन फंक्शन P(n) का अभ्यास किया था।

इन्होने शून्य और अनन्त को हमेशा ध्यान में रखा और इसके अंतर्सम्बन्धों को समझाने के लिए गणित के सूत्रों का सहारा लिया। वे अपनी विख्यात खोज गोलिय विधि (Circle Method) के लिए भी जाने जाते है।

• श्रीनिवास रामानुजन की 7 हकीकत

- श्रीनिवास रामानुजन स्कूल में हमेशा ही अकेले रहते थे, उनके सहयोगी उन्हें कभी समझ नही पाये थे। रामानुजन गरीब परीवार से सम्बन्ध रखते थे और अपने गणितो का परीणाम देखने के लिए वे पेपर की जगह कलमपट्टी का उपयोग करते थे। शुद्ध गणित में उन्हें कीसी प्रकार का प्रशिक्षण नही दिया गया था।

- गवर्नमेंट आर्ट कॉलेज में पढ़ने के लिये उन्हें अपनी शिष्यवृत्ति खोनी पड़ी थी और गणित में अपने लगाव से बाकी दुसरे विषयो में वे फेल हुए थे।

- रामानुजन ने कभी कोई कॉलेज डिग्री प्राप्त नही की। फिर भी उन्होंने गणित के काफी प्रचलित प्रमेयों को लिखा। लेकिन उनमे से कुछ को वे सिद्ध नही कर पाये।

- इंग्लैंड में हुए जातिवाद के वे गवाह बने थे।

- उनकी उपलब्धियों को देखते हुए 1729 नंबर हार्डी-रामानुजन नंबर के नाम से जाना जाता है।

- 2014 में उनके जीवन पर आधारीत तमिल फ़िल्म ‘रामानुजन का जीवन’ बनाई गयी थी।

- उनकी 125 वी एनिवर्सरी पर गूगल ने अपने लोगो को इनके नाम पर करते हुए उन्हें सम्मान अर्जित किया था।

From : sktalk2020
एक स्कॉटिश वैज्ञानिक, खोजकर्ता, इंजिनियर और प्रवर्तक थे जो पहले वास्तविक टेलीफोन के अविष्कार के लिये जाने जाते है।

• टेलीफोन के अविष्कार की कहानी

एलेग्जेंडर बेल का जन्म 3 मार्च 1847 को स्कॉटलैंड के एडिनबर्घ में हुआ था।

उनका पारिवारिक घर 16 साउथ शेर्लोट स्ट्रीट में था और वहाँ एलेग्जेंडर के जन्म को लेकर कयी तरह के शिलालेख भी मौजूद है।

उनके पिता प्रोफेसर एलेग्जेंडर मेलविल्ले बेल स्वरवैज्ञानिक और उनकी माता एलिजा ग्रेस थी। उनका जन्म एलेग्जेंडर बेल के नाम से हुई हुआ था और 10 साल की उम्र में अपने पिता से अपने दो भाइयो के मध्य नाम की तरह अपना भी मध्य नाम रखने का निवेदन किया था। उनके 11 वे जन्मदिन पर उनके पिता ने उनका मध्यनाम “ग्रैहम” रहने की उन्हें अनुमति भी दी थी, इसका सुझाव उनके पिता के एक कैनेडियन पारिवारिक दोस्त ने उनके पिता को ही दिया था।

उनके परिवार और सहकर्मियों के अनुसार बेल बचपन से ही बहुत होशियार थे। बेल के पिता, दादा और भाई वक्तुत्व्कला और भाषणों से संबंधित काम से जुड़े हुए थे और उनकी माँ और पत्नी दोनों ही बहरे थे।

बेल लगातार भाषण और बात करने वाले उपकरणों के अविष्कार में लगे रहते थे और ऐसा करने से ही उनके दिमाग को चालना मिलती भी गयी। और इसी वजह से 1876 में टेलीफोन की खोज करने वाले बेल को यूनाइटेड स्टेट के पहले पेटेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया था।

बेल ने टेलीफोन का अविष्कार कर विज्ञान की दुनिया का सबसे बेहतरीन और सबसे प्रसिद्ध अविष्कार भी कर दिया था।

टेलीफोन की खोज करने के बाद बेल ने अपने जीवन में और बहुत से अविष्कार भी किये है जिनमे मुख्य रूप से टेलीकम्यूनिकेशन, हीड्रोफ़ोइल और एरोनॉटिक्स शामिल है।

नेशनल जियोग्राफिक सोसाइटी में 1898 से 1903 तक उन्होंने वहा रहते हुए सेवा की थी और सोसाइटी के दुसरे प्रेसिडेंट के पद पर कार्यरत रहे।

• एलेग्जेंडर ग्रैहम बेल की शिक्षा

युवा बालक के रूप में बेल अपने भाइयो की ही तरह थे, उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही अपने पिता से ही ग्रहण की थी।

अल्पायु में ही उन्हें स्कॉटलैंड के एडिनबर्घ की रॉयल हाई स्कूल में डाला गया था और 15 साल की उम्र में उन्होंने वह स्कूल छोड़ दी थी।

उस समय उन्होंने पढाई के केवल 4 प्रकार ही पुरे किये थे। उन्हें विज्ञान में बहुत रूचि थी, विशेषतः जीवविज्ञान में, जबकि दुसरे विषयो में वे ज्यादा ध्यान नही देते थे।

स्कूल छोड़ने के बाद बेल अपने दादाजी एलेग्जेंडर बेल के साथ रहने के लिये लन्दन चले गये थे। जब बेल अपने दादा के साथ रह रहे थे तभी उनके अंदर पढने के प्रति अपना प्यार जागृत हुए और तभी से वे घंटो तक पढाई करते थे।

युवा बेल ने बाद में अपनी पढाई में काफी ध्यान दिया था। उन्होंने अपने युवा छात्र दृढ़ विश्वास के साथ बोलने के लिये काफी कोशिशे भी की थी। और उन्होंने जाना की उनके सभी सहमित्र उन्होंने एक शिक्षक की तरह देखना चाहते है और उनसे सीखना चाहते है।

16 साल की उम्र में ही बेल वेस्टन हाउस अकैडमी, मोरे, स्कॉटलैंड के वक्तृत्वकला और संगीत के शिक्षक भी बने।

इसके साथ-साथ वे लैटिन और ग्रीक के विद्यार्थी भी थे। इसके बाद बेल ने एडिनबर्घ यूनिवर्सिटी भी जाना शुरू किया, और वही अपने भाई मेलविल्ले के साथ रहने लगे थे।

1868 में अपने परिवार के साथ कनाडा शिफ्ट होने से पहले बेल ने अपनी मेट्रिक की पढाई पूरी कर ली थी और फिर उन्होंने लन्दन यूनिवर्सिटी में एडमिशन भी ले लिया था।

• एलेग्जेंडर ग्रैहम बेल का पहला अविष्कार

एक बच्चे के रूप में बेल ने इस दुनिया की प्राकृतिक जिज्ञासा को प्रदर्शित किया था और अल्पायु में ही वानस्पतिक नमूनों को इकट्टा कर उनपर प्रयोग करते रहते थे।

उनका सबसे अच्छा दोस्त बेन हेर्डमैन था, जो उनका पडोसी भी था और उनके परिवार की एक फ्लौर मिल भी थी। बेल हमेशा अपने दोस्त से पूछा करते थे की मिल में किन-किन चीजो की जरुरत पड़ती है।

तब उनका दोस्त कहता था की कामगारों की सहायता से गेहू का भूसा बनाया जाता है और उसे पिसा जाता है। 12 साल की उम्र में बेल ने घर पर ही घुमने वाले दो कठोर पहियों को जोड़कर, (जिनके बिच घर्षण हो सके) एक ऐसी मशीन बनायी जिससे गेहू को आसानी से पिसा जा सकता था। उनकी इस मशीन का उपयोग कयी सालो तक होता रहा। बदले में बेन के पिता जॉन हेर्डमैन ने दोनों बच्चो को खोज करने के लिये एक वर्कशॉप भी उपलब्ध करवायी थी।

• एलेग्जेंडर ग्रैहम बेल के अविष्कार

मई, 1874 में टेलीफोन का अविष्कार। बाद में उन्होंने फ़ोनोंऑटोग्राफ पर प्रयोग करना शुरू किया, एक ऐसी मशीन जो स्वर की लहरों को रुपरेखा दी सके।

इसी साल की गर्मियों में उन्होंने टेलेफोन बनाने की योजना भी बनायी। इसके बाद उन्होंने अपने असिस्टेंट थॉमस वाटसन को भी काम पर रख लिया था।

2 जून 1875 को बेल ने टेलीफोन पर चल रहे अपने काम को सिद्ध किया। इसके बाद वाटसन ने बेल के फ़ोनोंऑटोग्राफ में लगी धातु की एक नलिका को खिंचा।

अचानक हुई इस घटना से यह भी पता चला की टेलीफोन से हम ध्वनि को भी स्थानांतरित कर सकते है। 7 मार्च 1876 को बेल में अपने विचारो का पेटेंट हासिल किया।

बेल को यूनाइटेड स्टेट पेटेंट ऑफिस पेटेंट नंबर 174,465 मिला। इससे उनके विचारो को भी कॉपी नही कर सकता था और वे आसानी से टेलेग्राफी तरंगो से मशीन से आवाज को स्थानांतरित कर सकते थे।

3 अगस्त 1876 को उन्होंने पहला लंबी दुरी का कॉल लगाया। इसके बाद बेल को दूर के किसी ब्रन्तफोर्ड गाँव से एक ध्वनि-सन्देश भी मिला, यह सन्देश तक़रीबन 4 मिल दूर से आया था। इस घटना के बाद बेल ने अपनी योजनाओ को लोगो के सामने बोलना शुरू किया और अपनी खोजो को सार्वजानिक रूप से जाहिर भी किया।

11 जुलाई 1877 को बेल ने पहली टेलेफोन कंपनी की स्थापना की। बेल के टेलीफोन कंपनी की स्थापना हुई। इसी साल बेल ने कैम्ब्रिज के मबेल हब्बार्ड से शादी की। लेकिन अभी भी उनकी कमाई का जरिया पढाना ही था क्योकि उस समय टेलीफोन उनके लिए ज्यादा लाभदायी नही था।

1881 को बेल ने दुसरे कयी अविष्कार भी किये। बेल ने फोनोग्राफ, मेटल डिटेक्टर, मेटल जैकेट की भी खोज की और साथ ही ऑडियोमीटर की भी खोज की ताकि लोगो को सुनने में परेशानी ना हो, इसके बाद उनके नाम पर 18 पेटेंट दर्ज किये गए।

उनके अविष्कारों को देखते हुए उन्हें बहुत से सम्मानों और पुरस्कारों से नवाजा भी गया था और आज भी उन्हें कयी पुरस्कार दिये जाते है।

1897 में बेल प्रसिद्ध हुए और बहुत सी संस्थाओ में भी उन्हें शामिल किया गया।

25 जनवरी 1915 को बेल ने पहला ट्रांस-अटलांटिक फ़ोन कॉल लगाया। पहली बार बेल ने उपमहाद्वीप के बाहर से भी वाटसन को कॉल लगाया। इस कॉल के 38 साल पहले, बेल और वाटसन ने फ़ोन पर बात की थी। लेकिन यह कॉल उस फ़ोन से काफी बेहतर था और आवाज भी साफ़ थी।

• एलेग्जेंडर ग्रैहम बेल की मृत्यु

2 अगस्त 1922 को 75 साल की उम्र में अपनी व्यक्तिगत जगह बेंन भ्रेअघ, नोवा स्कॉटिया में डायबिटीज की वजह से उनकी मृत्यु हुई थी।

बेल एनीमिया से भी ग्रसित थे। आखरी बार उन्होंने रात को 2 बजे अपनी माउंटेन एस्टेट के दर्शन किये थे।

लम्बी बीमारी के बाद उनकी पत्नी मबेल ने उनके गानों में गुनगुनाते हुए कहा था, “मुझे छोड़कर मत जाओ।” जवाब में बेल ने “नहीं…।” कहा और कुछ ही समय बाद उनकी मृत्यु भी हो गयी थी। बेल की अंतिम यात्रा को सम्मान देते हुए उत्तरी अमेरिका उपमहाद्वीप के सभी फ़ोन को उनके सम्मान में साइलेंट पर रखा गया था, वे एक ऐसे अविष्कारक थे जिन्होंने अपने अविष्कार से लाखो मील दूर रह रहे इंसान को भी जोड़ा था।

From : sktalk2020

Biography of Jack ma, Ma Yun, is a Chinese business magnate investor and politician

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